________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कभी प्रतिपातित नहीं होता / अकषायिभाव से युक्त मनुष्यत्व को जो मनुष्य पुनः प्राप्त नहीं करेगा, वह चरम है, जो प्राप्त करेगा, वह अचरम है। ज्ञानद्वार में चरमाचरमत्व-कथन--ज्ञानी, जीव और सिद्ध सम्यग्दृष्टि के समान अचरम हैं, क्योंकि जीव ज्ञानावस्था से गिर भी जाए तो भी वह उसे पुनः अवश्य प्राप्त कर लेता है, अतः अचरम है। सिद्ध सदा ज्ञानावस्था में ही रहते हैं, इसलिए अचरम हैं। शेष जिन जीवों को ज्ञानयुक्त नारकत्वादि की पुनः प्राप्ति नहीं होगी, वे चरम हैं शेष अचरम हैं। सर्वत्र से यहाँ तात्पर्य है, जिन जीवों में 'सम्यग्ज्ञान' सम्भव है, उन सब में अर्थात्-एकेन्द्रिय को छोड़कर शेष जीवादि पदों में। जो जीव प्राभिनिबोधिक आदि ज्ञान को केवलज्ञान हो जाने के कारण पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम है, शेष अचरम हैं। केवल ज्ञानी अचरम होते हैं। अज्ञानी, मतिअज्ञानी आदि कदाचित् चरम और कदाचित अचरम हैं, क्योंकि जो जीव पुन: अज्ञान को प्राप्त नहीं करेगा, वह चरम है, जो अभव्यजीव ज्ञान प्राप्त नहीं करेगा, वह अचरम है। आहारक का अतिदेश–जहाँ-जहाँ आहारक का अतिदेश किया गया है, वहाँ-वहाँ 'कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम हैं', यों कहना चाहिए।' चरम-अचरम-लक्षण-निरूपण 103. इमा लक्खणगाहा--- जो जं पाविहिति पुणो भावं सो तेण प्रचरिमो होह / अच्चंतवियोगो जस्स जेण भावेण सो चरिमो // 1 // सेवं भंते ! सेवं भंते ! 0 जाव विहरति / अट्ठारसमे सए : पढमो उद्देसमो समत्तो // 18-1 / / [103] यह लक्षण-गाथा (चरम-अचरमस्वरूप प्रतिपादक) है [गाथार्थ-जो जीव, जिस भाव को पुनः प्राप्त करेगा, वह जीव उस भाव की अपेक्षा से 'अचरम' होता है; और जिस जीव का जिस भाव के साथ सर्वथा वियोग हो जाता है; वह जीव उस भाव की अपेक्षा 'चरम' होता है / / 1 / / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'-कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन--सू. 103 में चरम और अचरम के लक्षण को स्पष्ट करने वाली गाथा प्रस्तुत की गई है / गाथा का भावार्थ स्पष्ट है। // अठारहवां शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त // 1. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्र 736-737 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org