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________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 1] [667 कदाचित् अचरम होते हैं। जो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादष्टि का सदा के लिए अन्त करके मोक्ष में चले जाते हैं वे मिथ्यादृष्टित्व की अपेक्षा से चरम हैं और उनसे भिन्न अचरम हैं / मिथ्यादृष्टि नैरयिक आदि जो मिथ्यात्वसहित नैरयिकादिपन पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम हैं, उनसे भिन्न अचरम हैं। मिश्रदृष्टि की बक्तव्यता में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये दोनों कभी मिश्रदष्टि नहीं होते / सिद्धान्तानुसार एकेन्द्रिय कदापि सम्यक्त्वी-यहाँ तक कि सास्वादन सम्यक्त्वी भी नहीं होते। इसलिए सम्यग्दृष्टि की वक्तव्यता में एकेन्द्रिय का कथन नहीं करना चाहिए / इसी प्रकार जिसमें जो पर्याय सम्भव न हो, उसमें उसका कथन नहीं करना चाहिए / यथा-संज्ञीपद में एकेन्द्रिय का और असंज्ञीपद में ज्योतिष्क आदि का कथन करना संगत संज्ञी, असंज्ञी, नोसंज्ञो-नोअसंज्ञी में चरमाचरमस्व--संशी समुच्चयजीव 16 दण्डकों में, असंज्ञी समुच्च व 22 दण्डकों में एक जीव की अपेक्षा कदाचित चरम कदाचित अचरम हैं। बहुजीवापेक्षया चरम भी हैं, अचरम भी / नोसंज्ञो-नोअसंज्ञी समुच्चयजीव और सिद्ध एक जीवापेक्षया अथवा बहुजीवापेक्षया अचरम हैं। मनुष्य (केवली की अपेक्षा से) एकवचन-बहुवचन से चरम हैं, अचरम नहीं। __ लेश्या की अपेक्षा से चरमाचरमत्व-कथन-सलेश्यी समुच्चय जीव 24 दण्डक, कृष्ण-नीलकापोतलेश्यी समुच्चयजीव 22 दण्डक, तेजोलेश्यी समुच्चयजीव 18 दण्डक, पद्मलेश्यी शुक्ललेश्यी समुच्चयजीव 3 दण्डक, एकजीवापेक्षया कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम हैं / बहुजीवापेक्षया चरम भी हैं, अचरम भी हैं। अलेश्यी, समुच्चयजीव और सिद्ध, एकजीवापेक्षया-बहुजीवापेक्षया अचरम हैं, चरम नहीं / अलेश्यो मनुष्य, एकजीव-बहुजीवापेक्षया चरम हैं, अचरम नहीं / संयतादि में चरमाचरमत्वकथन-संयत समुच्चयजीव और मनुष्य ये दोनों चरम और अचरम दोनों होते हैं। जिसको पुनः संयम (संयतत्व) प्राप्त नहीं होता, वह चरम है, उससे भिन्न अचरम है / समुच्चयजीवों में भी मनुष्य को संयम प्राप्त होता है, अन्य किसी जीव को नहीं / असंयती समुच्चयजीव (24 दण्डकों में) संयतत्व की अपेक्षा से एक जीव की दृष्टि से कदाचित् चरम, कदाचित् अचरम होता है। बहुजीवों की दृष्टि से चरम भी हैं, अचरम भी / संयतासंयतत्व (देशविरतिपन), जीव, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य, इन तीनों में ही होता है। इसलिए संयतासंयत का कथन भी इसी प्रकार है / नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत (सिद्ध) अचरम होते हैं, क्योंकि सिद्धत्व नित्य होता है, इसलिए वह चरम नहीं होता / कषाय को अपेक्षा से चरमाचरमस्व-सकषायी भेदसहित जीवादि स्थानों में कदाचित् चरम होते हैं, कदाचित् अचरम 1 जो जीव मोक्ष प्राप्त करेंगे, वे चरम हैं शेष अचरम हैं। नैरयिकादि जो नारकादियुक्त सकषायित्व को पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम हैं, शेष अचरम हैं। अकषायी (उपशान्तमोहादि) तीन होते हैं समुच्चयजीव, मनुष्य और सिद्ध / अकषायो जीव और सिद्ध, एकजीव-बहुजीवापेक्षया अचरम हैं, चरम नहीं; क्योंकि जीव का अक्षायित्व से प्रतिपतित होने पर भी मोक्ष अवश्यम्भावी है, सिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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