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________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसुत्र 101. असरीरी जहा नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीनो (सु० 78) / [11] अशरीरी के विषय में (सू. 78 में उल्लिखित) नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक के समान (कहना चाहिए।) 102. पंचहि पज्जत्तीहि पंचहि अपज्जत्तीहिं जहा आहारओ (सु०७२) / सम्बत्थ एगत्तपुहत्तेणं दंडगा भाणियन्वा / [102] पांच पर्याप्तियों से पर्याप्तक और पांच अपर्याप्तियों से अपर्याप्तक के विषय में (सू. 72 में उल्लिखित) आहारक के समान कहना चाहिए / सर्वत्र ( ये पूर्वोक्त चौदह ही) दण्डक, एकवचन और बहुवचन से कहने चाहिए / विवेचन–चरम-अचरम के चौदह द्वार-पूर्वोक्त 14 द्वारों के माध्यम से, उस-उस भाव की अपेक्षा से, एकवचन और बहुवचन से, चरमत्व- अचरमत्व का प्रतिपादन किया गया है / चरम-अचरम का पारिभाषिक अर्थ-जिसका कभी अन्त होता है, वह 'चरम' कहलाता है, और जिसका कभी अन्त नहीं होता, वह अचरम कहलाता है / जैसे-जीवत्वपर्याय की अपेक्षा से जीव का कभी अन्त नहीं होता, इसलिए वह चरम नहीं, अचरम है। नैरधिकादि उस-उस भाव की अपेक्षा चरम-अचरम दोनों--जो नैरयिक, नरकगति से निकलकर फिर नैरयिकभाव से नरक में न जाए और मोक्ष चला जाए, वह नै रयिक भाव का सदा के लिए अन्त कर देता है, वह 'चरम' कहलाता है, इससे विपरीत अचरम / इसी प्रकार वैमानिक तक 24 दण्डकों में चरम-अचरम दोनों समझने चाहिए। सिद्धत्व---का कभी अन्त (विनाश) नहीं होता, इसलिए वह 'अचरम' है / आहारक आदि सभी पदों में जीव कदाचित चरम होता है, और कदाचित अचरम / जो जीव मोक्ष चला जाता है, वह चरम है, उससे भिन्न प्राहारकादि प्रचरम हैं। अनाहारकत्व जीव और सिद्ध दोनों पदों में होता है। भवसिद्धिकादि में चरमाचरमत्व-कथन-'भव्य अवश्यमेव मोक्ष जाता है, यह सिद्धान्तवचन है / मोक्ष प्राप्त होने पर भवसिद्धिकत्व (भव्यत्व) का अन्त हो जाता है। अतः भव्यत्व की अपेक्षा से भवसिद्धिक चरम है। प्रभवसिद्धिक का अन्त नहीं होता, क्योंकि वह कभी मोक्ष नहीं जाता, इसलिए अभवसिद्धिक अचरम है। नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक सिद्ध होते हैं, उनमें सिद्धत्व-पर्याय का कभी अन्त नहीं होता, इसलिए अभवसिद्धिकवत् वे अचरम हैं। सम्यग्दष्टि आदि में चरमाचरमत्व-कथन- सम्यग्दर्शन जीव और सिद्ध दोनों पदों में होता है। इनमें से जीव अचरम है, क्योंकि वह सम्यग्दर्शन से गिर कर पुनः सम्यग्दर्शन को अवश्य प्राप्त करता है; किन्तु सिद्ध चरम हैं, क्योंकि वे सम्यग्दर्शन से कभी गिरते ही नहीं / जो सम्यग्दृष्टि नैरयिक आदि, नारकत्वादि के साथ सम्यग्दर्शन को पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम हैं और उनसे भिन्न अचरम हैं। मिथ्यादृष्टिजीव, आहारक की तरह कदाचित् चरम और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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