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________________ [ 36 प्रथम शतक : उद्देशक-१ ] कर्मयुद्गलों को ज्यों-ज्यों क्षीण करता जाता है, त्यों-त्यों शीतल होता जाता है, इस प्रकार की शीतलता-शांति प्राप्त करना ही निर्वाणप्राप्त करना है। वही जीव अपने भव के अन्तसमय में जब समस्त कर्मों का सर्वथा क्षय कर चुकता है, तब अपने समस्त दुःखों का अन्त करता है। __असंक्त अनगार : चारों प्रकार के बन्धों का परिवर्धक---कर्मवन्ध के चार प्रकार हैंप्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशवन्ध / इनमें से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योग से होते हैं, तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषाय से होते हैं / असंवृत अनगार के योग अशुभ होते हैं, और कषाय तीव्र / इस कारण वह चारों हो बन्धों में वृद्धि करता है। ___ प्रणाइयं के संस्कृत में चार रूपान्तर वृत्तिकार ने करके उसके पृथक्-पृथक् अर्थ सूचित किये हैं-(१) अनादिकं (जिसकी प्रादि न हो), (2) अज्ञातिकं (जिसका कोई स्व-जन न हो), (3) ऋणातीतं (ऋण से होने वाले दुःख को भी मात करने वाले दुःख को देने वाला) और (4) प्रणातीतं (अतिशय पाप को प्राप्त)। प्रणवदग्गं के संस्कृत में तीन रूपान्तर करके वृत्तिकार ने उसके अनेक अर्थ सूचित किये हैं-(१) अनवदनम--(अवदन अन्त से रहित = अनन्त), (2) अनवनताग्रम्-जिसका अग्र = अन्त, अवनत यानी प्रासन्न (निकट) न हो; और (3) अनवगताग्रम् जिसका अग्र परिमाण , अनवमत हो-पता न चले। दोहमद्ध-अद्ध के दो रूप---अध्व और प्रद ; अर्थ हुए जिसका अध्व (मार्ग) या अद्धा = काल दोर्ष-लम्बा हो। असंयत जोव को देवगति विषयक चर्चा 12. [1] जोवे णं भंते ! असंजते अविरते अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे इतो चुए पेच्चा देवे सिया? गोयमा ! प्रत्थेगइए देवे सिया, अत्थेगइए नो देवे सिया। से केण?णं जाव इतो चुए पेच्या प्रथेगइए देवे सिया, अत्थेगइए नो देवे सिया ? मोयमा ! जे इमे जीवा गामाऽऽगर-नगर-निगम-रायहाणि-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणाऽऽसम-सन्निवेसेसु अकामतण्हाए प्रकामछुहाए अकामबंभचेरवासेणं अकाम प्रहाणगसेय-अल्ल-मल-पंकपरिदाहेणं अप्पतरो वा भुज्जतरो वा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति, अप्पाणं परिकिलेसइत्ता कालमासे काले किच्चा अन्नतरेसु वाणमंतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति / 12-13. भगवन् ! असंयत, अविरत, तथा जिसने पापकर्म का हनन एवं त्याग नहीं किया है, वह जीव इस लोक से च्यव (मर) कर क्या परलोक में देव होता है ? [12-1 उ.] गौतम ! कोई जीव देव होता है और कोई जीव देव नहीं होता / प्र.] भगवन् ! यहाँ से च्यब कर परलोक में कोई जीव देव होता है, और कोई जीव देव नहीं होता; इसका क्या कारण है ? - ----- --- 1. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 34-35 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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