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________________ 40] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [उ.] गौतम ! जो ये जीव ग्राम, आकर (खान), नगर, निगम (व्यापारिक केन्द्र), राजधानो, खेट (खेड़ा), कर्बट (खराब नगर), मडम्ब (चारों ओर ढाई-ढाई कोस तक बस्ती से रहित बस्ती), द्रोणमुख (बन्दरगाह जलपथ-स्थलपथ से युक्त बस्ती), पट्टण (पत्तन–मण्डी, जहाँ देश-देशान्तर से आया हुप्रा माल उतरता है), पाश्रम (तापस ग्रादि का स्थान), सनिवेश (घोष आदि लोगों का आवासस्थान) आदि स्थानों में अकाम तृषा (प्यासा) से, अकाम क्षुधा से, अकाम ब्रह्मचर्य से, अकाम शोत, आतप, तथा डांस-मच्छरों के काटने के दुःख को सहने से अकाम अस्तान, पसीना, जल्ल (धूल लिपट जाना), मैल तथा पंक से होने वाले परिदाह से, थोड़े समय तक या बहुत सम यतक अपने आत्मा (आप) को क्लेशित करते हैं; वे अपने प्रात्मा (आप) को (पूर्वोक्त प्रकार से) क्लेशित करके मृत्यु के समय पर मर कर वाणव्यन्तर देवों के किसी देवलोक में देबरूप से उत्पन्न होते हैं / वाणव्यन्तर देवलोक--स्वरूप |2| केरिसा णं भंते ! तेसि वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा पण्णता? गोयमा! से जहानामए इहं असोगवणे इ वा, सत्तवण्णवणे इ वा, चंपगवणे इ वा, चतवणे इवा, तिलगवणे इ वा, लउयवणे ति वा, णिग्गोहवणे इ वा, छतोववणे इ वा, असणवणे इ वा, सणवणे इ वा, अयसिवणे इ वा, कुसुभवणे इ वा, सिद्धत्थवणे इ वा, बंधुजीवगवणे इ वा गिच्चं कुसुमित माइत लवइत थवइय गुलुइत पुच्छित जमलित जुबलित विमित पणमित सुविभत्त पिडिमंजरिवडेंसगधरे सिरीए अईव अईव उदसोभेमाणे उबसोभेमाणे चिट्ठति, एवामेव तसि वाणमंतराणं देवाणं देव लोगा जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीपहिं उक्कोसेणं पलिग्रोवमट्टितीहि बहूहि वाणमंतरेहि देवेहि य देवोहि य प्राइण्णा वितिकिण्णा उवत्थडा संथडा फुडा अवगाढगाढा सिरीए प्रतीव प्रतीव उबसोभेमाणा चिट्ठति / एरिसगा गं गोतमा ! तेसि वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा पण्णत्ता / से तेणगुणं गोतमा ! .एवं बुच्चति-जीवे णं अस्संजए जाव देवे सिया। [12-2 प्र.] भगवन् उन वाणव्यन्तर देवों के देवलोक किस प्रकार के कहे गए हैं ? [12-2 उ.] गौतम ! जैसे इस मनुष्यलोक में नित्य कुसुमित (सदा फूला हुग्रा), मयूरित (मौर-पुष्पविशेष वाला), लवकित (कोंपलों वाला), फूलों के गुच्छों वाला, लतासमूह वाला, पत्तों के गुच्छों वाला, यमल (समान श्रेणी के) वृक्षों वाला, युगलवृक्षों वाला, फल-फूल के भार से नमा हुया, फल-फूल के भार से झुकने को प्रारम्भिक अवस्था वाला, विभिन्न प्रकार को बालों और मंजरियों रूपी मुकुटों को धारण करने वाला अशोकवन, सप्तवर्ण वन, चम्पकवन, आम्रवन, तिलकवृक्षों का वन, तुम्बे की लताओं का वन, वटवृक्षों का वन, छत्रोधवन, अशनवृक्षों का वन, सन (पटसन) वृक्षों का वन, अलसी के पौधों का वन, कुसुम्बवृक्षों का वन, सफेद सरसों का वन, दुपहिया (बन्धुजीवक) वृक्षों का वन, इत्यादि वन शोभा से अतीव-अतीव उपशोभित होता है। इसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों के देवलोक जघन्य दस हजार वर्ष की तथा उत्कृष्ट एक पल्योम की स्थिति वाले एवं वहुत-से बाणव्यन्तरदेवों से और उनकी देवियों से पाकीर्ण-व्याप्त, व्याकोर्ण-विशेष व्याप्त, एक दूसरे पर आच्छादित, परस्पर मिले हुए, स्फुट प्रकाश वाले, अत्यन्त अवगाढ़ श्री-शोभा से प्रतीव-प्रतीव सुशोभित रहते हैं / हे गौतम ! उन वाणव्यन्तर देवों के स्थान--देवलोक इसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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