________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१ ] [ 41 के कहे गए हैं। इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि असंयत जीव मर कर यावत् कोई देव होता है और कोई देव नहीं होता / विवेचन असंयत जीवों को गति एवं वाणव्यन्तर देवलोक-प्रस्तुत सूत्र में असंयत जीवों को प्राप्त होने वालो देवगति तथा देवलोकों में भी वाणव्यन्तर देवों में जन्म और उसका कारण एवं वाणव्यन्तरदेवों के प्रावासस्थानों का विस्तृत वर्णन किया गया है। काठन शब्दों की व्याख्या असंयत-असाधूया संयमराहत अविरत प्राणातिपात आदि पापों से विरतिरूप अतरहित अथवा तप आदि के विषय में जा विशेष रत नहीं है। अप्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा---(१) जिसने भूतकालीन पापों को निन्दा गहां आदि के द्वारा नष्ट (निराकृत) नहीं किया है. तथा जिसने भविष्यकालीन पापों का प्रत्याख्यान -न्याग नहीं किया है। (2) अथवा जिसने मरणकाल से पूर्व तप आदि के द्वारा पापकर्म का नाश न किया हो, मरणकाल मा जाने पर भी आश्रवनिरोध करके पापकर्म का प्रत्याख्यान न किया हा, (3) अथवा जिसने सम्यग्दर्शन अंगीकार करके पूर्वपापकर्म नष्ट नहीं किये, और सर्वविरति आदि अंगोकार करके ज्ञानावरणीयादि अशुभकर्मों का निरोध न किया हो। अकाम–शब्द यहाँ इच्छा के अभाव का द्योतक है / कर्म निर्जरा की अभिलाषा के विना जो कप्टमहन आदि किया जाय, उससे होने वाली निर्जरा अकामनिर्जरा है / अर्थात् बिना स्वेच्छा या बिना उद्देश्य के भुख, प्यास आदि कष्ट सहना—अकामनिर्जरा है / मोक्षप्राप्ति की कामना-स्वेच्छा या उद्देश्य से ज्ञानपूर्वक जो निर्जरा की जाती है, वह सकामनिर्जरा कहलाती है। दोनों के देवलोक में अन्तर-कई ज्ञानी सकाम निर्जरावाले भी देवलोक में जाते हैं और मिथ्यात्वी अकामनिर्जरा वाले भी, फिर भी दोनों के देवलोकगमन में अन्तर यह है कि अकामनिर्जरा वाले वाणव्यन्तरादि देव होते हैं, जबकि सकामनिर्जरा बाले साधक वैमानिक देवों की उत्तम से उत्तम स्थिति प्राप्त करके मोक्ष को भी पाराधना कर सकते हैं / ____ वाणव्यन्तर शब्द का अर्थ-वनविशेष में उत्पन्न होने अर्थात् बसने और वहीं कोडा करने वाले देव। मेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोतमे समर्ण भगवं महावीरं वदति नमसति बंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवमा अप्वाणं भावेमाणे विहरति / // पढमे सते पढमो उह सो॥ हे भगवन् ! 'यह इसी प्रकार है', 'यह इसी प्रकार है'; ऐसा कह कर भगवान् गौतम श्रमण भगवान महावीर को वन्दना करते हैं. नमस्कार करते हैं; वन्दना-नमस्कार करके संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते हैं। विवेचन-गौतम स्वामी द्वारा प्रशित वन्दन-बहुमान -प्रथम उद्देशक के उपसंहार में श्री गौतमस्वामी के द्वारा प्रश्न पूछने से पहले की तरह उत्तर-श्रवण के पश्चात श्रमण भगवान के प्रति कृतज्ञताप्रकाश के रूप में विनय एवं बहुमान प्रदर्शित किया गया है, जो समस्त साधकों के . लिए अनुकरणीय है। / / प्रथम शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / / 1 भगवतीमत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 36-37 महावीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org