SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 38 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [11-2 प्र.] भगवन् ! क्या संवृत अनगार सिद्ध होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? [11-2 उ.] हाँ, गौतम ! वह सिद्ध हो जाता है, यावत् सब दुःखों अन्त का करता है। (प्र.) भगवन् ! वह किस कारण से सिद्ध हो जाता है, यावत् सब दुःखों का अन्त कर देता है ? (उ.) गौतम ! संवृत अनगार आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष गाढ़बन्धन से बद्ध सात कर्मप्रकृतियों को शिथिलबन्धनबद्ध कर देता है; दीर्घकालिक स्थिति वाली कर्मप्रकृतियों को ह्रस्व (थोड़े) काल की स्थिति वाली कर देता है, तीवरस (अनभाव) वाली प्रकृतियों को मन्द रस वाली कर देता है; बहुत प्रदेश वाली प्रकृतियों को अल्पप्रदेश वाली कर देता है, और आयुष्य कर्म को नहीं बांधता। वह असातावेदनीय कर्म का बार-बार उपचय नहीं करता, (अतएव वह) अनादि-अनन्त दीर्घमार्ग वाले चातुर्गतिकरूप संसार-अरण्य का उल्लंघन कर जाता है। इस कारण से, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि संवृत अनगार सिद्ध हो जाता है, यावत् सब दुःखों का अन्त कर देता है। विवेचन–प्रसंवत और संवृत अनगार के सिद्ध होने प्रादि से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर–प्रस्तुत सत्र में क्रमश: असंवत और संवत अनगार के सिद्ध. बद्ध, मक्त. परिनित और सर्वदः अनगार के सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिवृत और सर्वदुःखान्तकर होने तथा न होने के सम्बन्ध में युक्तिसहित विचार प्रस्तुत किया गया है / प्रसंवृत-जिस साधु ने अनगार होकर भी हिंसादि आश्रवद्वारों को रोका नहीं है / संवत-पाश्रवद्वारों का निरोध करके संवर की साधना करने वाला मुनि संवृत अनगार है / ये छठे गुणस्थान (प्रमत्तसंयत) से लेकर चौदहवें गुणस्थानवर्ती तक होते हैं। संवृत अनगार दो प्रकार के होते हैं-चरमशरीरी और अचरमशरीरी। जिन्हें दूसरा शरीर धारण नहीं करना पड़ेगा, वे एकभवावतारी चरमशरीरी और जिन्हें दूसरा शरीर (सात-पाठ भव तक) धारण करना पड़ेगा, वे अचरमशरीरी होते हैं। प्रस्तुत सूत्र चरमशरीरी की अपेक्षा से है। परम्परारूप से अचरमशरीरी की अपेक्षा से भी है। दोनों में अन्तर-यद्यपि परम्परा से तो शुक्लपाक्षिक भी मोक्ष प्राप्त करेंगे ही, फिर भी संवृत और असंवृत अनगार का जो भेद किया गया है, उसका रहस्य यह है कि अचरमशरीरी संवत अनगार उसी भव में मोक्ष भले न जाएं मगर वे 7-8 भवों में अवश्य मोक्ष जाएँगे ही। इस प्रकार उनको परम्परा की सीमा 7-8 भवों को ही है / अपार्धपुद्गलपरावर्तन की जो परम्परा अन्यत्र कही गई है, वह विराधक की अपेक्षा से समझना चाहिए / अविराधक अचरमशरीरी संवृत अनगार अवश्य सात-आठ भवों में मोक्ष पाता है, भले ही उसकी चारित्राराधना जघन्य ही क्यों न हो। सिझई' प्रादि पांच पदों का अर्थ और क्रम-चरम भव----अन्तिम जन्म प्राप्त करके जो मोक्षगमनयोग्य होता है, वही सिद्ध (सिद्धि प्राप्त होता है; चरमशरीरी मानव को भावी नय की अपेक्षा से सिद्ध कह सकते हैं, वुद्ध नहीं / बुद्ध तभी कहेंगे जब केवलज्ञान प्राप्त होगा। जो बुद्ध हो जाता है, उसके केवल भवोपयाही अघातिकर्म शेष रहते हैं, भवोपग्राही कर्म को जब वह प्रतिक्षण छोड़ता है, तब मुक्त कहलाता है। भवोपनाही कर्मों को प्रतिक्षण क्षीण करने वाला वह महापुरुष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy