________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१] [ 37 उभयभविक का समावेश परभविक में ही हो जाता है, तथापि उसे पृथक् कहने का आशय यह है कि ज्ञान और दर्शन परतरभविक अर्थात् अगले भव से भी अगले भव में साथ जा सकते हैं / असंवुड-संवुड विषयक सिद्धता की चर्चा 11 [1] असंधुडे णं भंते ! अणगारे किं सिज्झति ? बुज्झति ? मुच्चति ? परिनिवाति ? सबदुक्खाणमंतं करेति ? गोयमा ! नो इण? सम?।। से केण?णं जाव नो अंतं करेइ ? गोयमा ! असंडे अणमारे पाउयवज्जानो सत्त कम्मपगडीयो सिढिलबंधणबद्धारो घणियबंधणबद्धानो पकरेलि, हस्तकालद्वितीयानो दोहकालद्वितीयानो पकरेति, मंदाणुभागानो तिव्वाणुभागानो पकरेति, अपपदेसम्गायो बहुप्पदेसग्गाग्रो पकरेति, प्राउगं च णं कम्म सिय बंधति, सिय नो बंधति, प्रस्सातावेदणिज्जं च णं कम्मं भुज्जो-भुज्जो उचिणाति, अणादोयं च णं प्रणवदागं दोहमद्ध चाउरतं संसारकतारं असुपरियट्टइ / से तेग?णं गोयमा ! असंवुडे अणगारे नो सिज्झति 5' / / |11-1 प्र.| भगवन् असंवृत अनगार क्या सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, निर्वाण प्राप्त करता है तथा समस्त दुःखों का अन्त करता है ? [11-1 उ. हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य या ठोक) नहीं है / (प्र.) भगवन् ! वह किस कारण से सिद्ध नहीं होता, यावत् सब दुःखों का अन्त नहीं करता ? (उ.) गौतम ! असंवृत अनगार आयुकर्म को छोड़कर शेप शिथिलबन्धन से बद्ध सात कर्मप्रकृतियों को गाढ़बन्धन से बद्ध करता है; अल्पकालीन स्थिति वाली कर्म-प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वालो करता है; मन्द अनुभाग बाली प्रकृतियों को तीन अनुभाग वालो करता है अल्पप्रदेश वाली प्रकृतियों को बहुत प्रदेश वाली करता है और प्रायुकर्म को कदाचित् बांधता है, एवं कदाचित नहीं बांधता; असातावेदनीय कर्म का बार-बार उपार्जन करता है; तथा अनादि अनवदग्र-अनन्त दीर्घमार्ग वाले चतुर्गतिवाले संसाररूपी अरण्य में बार-बार पर्यटन-परिभ्रमण करता है: हे गौतम ! इस कारण से असंवत अनगार सिद्ध नहीं होता, यावत समस्त दुःखों का अन्त नहीं करता। [2] संयुड़े णं भंते ! अणगारे सिझति 5? हंता, सिझति जाव२ अंतं करेति / से केण?णं? गोयमा ! संवडे अणगारे ग्राउयवज्जायो सत्त कम्मपगडोश्रो घणियबंधणबद्धानो सिढिलबंधणबद्धाप्रो पकरेति, दोहकालद्वितीयानो ह्रस्सकालद्वितीयानो पकरेति, तिवाणुभागानो मंदाणुभागानो पकरेति, बहुपएसग्गाओ अप्पपएसग्गामो पकरेति, प्राउयं च णं कम्मं न बंधति, अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्मं नो भुज्जो भुज्जो उचिणाति, अणाईयं च णं प्रणवदग्गं दोहमद चाउरतं संसारकतारं वीतीवति / से तेणढणं गोयमा ! एवं कुच्चइ-संवडे अणगारे सिज्झति जाव अंतं करेति / 1. जहाँ 5 का अंक है---वह 'नो सिझति' नो बुज्झति आदि पांचों पदों की योजना करनी चाहिए। 2. 'जाव' पद से भुज्यन्ते से 'सय्यदुक्खाणमंतं करेति' तक का पाठ समझ लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org