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________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रात्मारम्भी-जो स्वयं प्राथवद्वार में प्रवृत्त होता है या प्रात्मा द्वारा स्वयं आरम्भ करता है। परारम्भी-दूसरे को आश्रव में प्रवृत्त करने वाला या दूसरे से प्रारम्भ कराने वाला। तदुभयारम्भी (उभयारंभी)- जो आत्मारम्भ और परारम्भ दोनों करता है / / अनारम्भी-~-जो आत्मारम्भ, परारम्भ और उभयारम्भ से रहित हो; या उपयोगपूर्वक प्रतिलेखना आदि प्रवृत्ति करने वाला संयत / शुभयोग---उपयोगपूर्वक-सावधानतापूर्वक योगों की प्रवृत्ति। लेश्या-कृष्ण आदि द्रव्यों के सम्बन्ध से आत्मा में उत्पन्न होने वाले परिणाम / ' संयत-प्रसंयत—जो जीव सब प्रकार की बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थि से तथा विषय-कषाय से निवृत्त हो चुके हैं, वे संयत और जो इनसे अनिवृत्त हैं तथा आरम्भ में प्रवृत्त हैं, वे असंयत कहलाते हैं / भव की अपेक्षा से ज्ञानादिक की प्ररूपणा 10. [1] इहभविए भंते ! नाणे ? परभविए नाणे ? तदुभयभविए नाणे ? गोयमा ! इहभविए वि नाणे, परभविए वि नाणे, तदुभयभविए वि नाणे। [10-1 प्र.] हे भगवन् ! क्या ज्ञान इहभविक है ? परभविक है ? या तदुभयभविक है ? [10-1 उ.] गौतम ! ज्ञान इविक भी है, परभविक भी है, और तदुभयभविक भी है। [2] दंसणं पि एवमेव। [10-2] इसी तरह दर्शन भी जान लेना चाहिए। [3] इहभविए भते ! चरित्ते ? परभविए चरित्ते ? तदुभयभविए चरित्त / गोयमा ! इहभविए चरित्त, नो परभविए चरित, नो तदुभयभविए चरित। [10-3 प्र. हे भगवन् ! क्या चारित्र इहभाविक है, परभबिक है या तदुभयभबिक है ? |10-3 उ. गौतम ! चारित्र इहविक है, वह परभविक नहीं है और न तदुभयभविक है। [4] एवं तवे, संजमे। [10-4] इसी प्रकार तप और संयम के विषय में भी जान लेना चाहिए / विवेचन--भव की अपेक्षा ज्ञानादिसम्बन्धी प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत सूत्र में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और संयम के इहभव, परभव और उभयभव में अस्तित्व के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर अंकित हैं / ज्ञान और दर्शन दोनों यहाँ वहाँ सर्वत्र रहते हैं, किन्तु चारित्र, तप और संयम इस जीवन तक ही रहते हैं। ये परलोक में साथ नहीं रहते, क्योंकि चारित्र, तप, संयम आदि को जो जीवनपर्यन्त प्रतिज्ञा ली जाती है, वह इस जीवन के समाप्त होने पर पूर्ण हो जाती है, मोक्ष में चारित्र का कुछ भी प्रयोजन नहीं है। देवगति प्राप्त होने पर वहाँ संयम आदि सम्भव नहीं हैं। 1. कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यातपरिणामो यात्मनः / स्फटिकस्येव तत्राऽयं लेश्याशब्दः प्रयुज्यते / / 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 31 से 33 तक भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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