________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१] [ 35 चौबीस दंडक में आरंभ प्ररूपणा 8. [1] नेरइया गं भंते ! कि प्रायारंभा? परारंभा? तदुभयारंभा ? अणारंभा ? गोयमा ! नेरइया मायारंभा वि जाब नो अणारंभा। से केपट्टणं? गोयमा ! अविरति पडुच्च से तेणढणं जाव नो अणारंभा। [8-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव क्या आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, उभयारम्भी हैं, या ग्रतारम्भी हैं? 8-1 उ. | गौतम ! नैरयिक जीव आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं, और उभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनार भी नहीं हैं / [प्र.) भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं ? (उ.] हे गौतम ! अविरति की अपेक्षा से, अविरति होने के कारण (ऐसा कहा जाता है कि) नै रयिक जीव आत्मारम्भी, परारम्भी और उभया रम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं। [2.20] एवं जाव असुरकुमारा वि, जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिया। [8.2 से 20] इसी प्रकार असुरकुमार देवों के विषय में भी जान लेना चाहिए, यावत् तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय तक का भी (आलापक) इसी प्रकार कहना चाहिए। 21] मणुस्सा जहा जीवा / नवरं सिद्धविरहिता भाणियब्वा / |22-24] वाणमंतरा जाव वेमाणिया जधा नेरतिया / 18-21 से 24] मनुष्यों में भी सामान्य जीवों को तरह जान लेना विशेष यह है कि सिद्धों का कथन छोड़कर / वाणव्यन्तर देवों से वैमानिक देवों तक नैरयिकों की तरह कहना चाहिए। सलेश्य जीवों में प्रारंभ प्ररूपणा 6. [1] सलेसा जहा प्रोहिया (सु. 7) / |2| किण्हलेस-नीललेस-काउलेसा जहा ओहिया जीवा, नवरं पमत्त प्रप्पमत्ता न भाणियवा। तेउलेता पम्हलेसा सुस्कलेसा जहा प्रोहिया जीवा (सु. 7), नवरं सिद्धा न भाणियवा / 18-1-2 लेश्यावाले जीवों के विषय में सामान्य (ौधिक) जीवों की तरह कहना चाहिए। कृष्णालेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले जीवों के सम्बन्ध में सामान्य जीवों की भांति ही सब कथन समझना चाहिए; किन्तु इतना विशेष है कि (सामान्य जीवों के आलापक में उक्त) प्रमत्त और अप्रमत्त यहाँ नहीं कहना चाहिए। तेजोलेश्या वालं, पद्मलेश्या वाले और शुक्ललेश्या वाले जीवों के विषय में भी औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए; किन्तु इतना विशेष है कि सामान्य जीवों में से मिद्धों के विषय का कथन यहाँ नहीं करना चाहिए। विवेचन -विविध पहलुत्रों से आरम्भी-अनारम्भी विचार प्रस्तुत तीन पूत्रों (7-8-9) में सामान्य जीवों, चविशतिदण्डकीय जीवों और सलेश्य जीवों की अपेक्षा से आत्मारम्भ, परारम्भ. तदुभयारम्भ अोर अनारम्भ का विचार किया गया है / प्रारम्भ यह जैन पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है-ऐसा सावध कार्य करना, या किसी आश्रय में प्रवृत्ति करना, जिससे किसी जीव को कष्ट पहुँचे या उसके प्राणों का घात हो / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org