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________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [प्र. 3] वह सत्या आदि चार प्रकार की भाषाओं में से कौन-सी भाषा बोलता है ? [उ.] चारों प्रकार की। [प्र. 4] निरवद्य भाषा बोलता है, या सावद्य? [उ.] दोनों प्रकार की भाषा बोलता है। [प्र. 5] भवसिद्धिक है या अभवसिद्धिक ? सम्यग्दष्टि है या मिथ्यादृष्टि ? परित्तसंसारी है या अपरित्त (अनन्त) संसारी ? सुलभबोधि है या दुर्लभबोधि ? पाराधक है या विराधक ? चरम है या अचरम ? [उ.] इन सब में प्रशस्तपद ही ग्राह्य है।' कठिन शब्दार्थ—सावज्जे-सावद्य-गहितकमसहित, पापयुक्त / अणवज्ज-निरवद्य-निष्पाप / सुहुमकायं-सूक्ष्म काय-हस्त आदि वस्तु अथवा वस्त्र / अणिज्जहित्ता लगाए बिना, ढंके बिना। अर्थात् हाथ एवं वस्त्र आदि मुख पर लगा (टैंक) कर यतनापूर्वक बोलने वाले के द्वारा जीवरक्षा होती है, इसलिए वह भाषा निरवद्य होती है, इससे भिन्न सावद्य। सम्मावादी–सम्यग् बोलने के स्वभाव वाला, सम्यग्वादनशील / सम्यग्वादनशील होते हुए भी प्रमाद आदि के वश सत्य भाषा भी गहित कर्म के लिए बोली जाए अथवा मुख पर वस्त्रादि या हाथ आदि लगाए बिना बोली जाए, वह भाषा सावध होती है / जीव और चौवीस दण्डकों में चेतनकृत कर्म की प्ररूपणा 17. [1] जीवाणं भंते ! कि चेयकडा कम्मा कज्जंति, अचेयकडा कम्मा कति ? गोयमा ! जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जति / [17-1 प्र.] भगवन् ! जीवों के कर्म चेतनकृत होते हैं या अचैतन्यकृत ? [17-1 उ.] गौतम ! जीवों के कर्म चेतनकृत होते हैं अचेतनकृत नहीं होते / [2] से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव कज्जति ? गोयमा ! जीवाणं आहारोवचिता पोग्गला बोंदिचिया पोग्गला कलेवरचिया पोग्गला तहा तहा गं ते पोग्गला परिणमंति, नथि अचेयकडा कम्मा समणाउसो! / दुटाणेसु दुसेज्जासु दुन्निसीहियासु तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नस्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो! / प्रायके से वहाए होति, संकप्पे से वहाए होति, मरणते से वहाए होति, तहा तहा गं ते पोग्गला परिणमंति, नस्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो! / से तेण?णं जाव कम्मा कज्जति / (17-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि जीवों के कर्म चेतनकृत होते हैं, अचेतन. कृत नहीं होते ? 17.2 उ. गौतम ! जीवों के आहार रूप से उपचित जो पुदगल हैं, शरीररूप से जो संचित पुद्गल हैं और कलेवर रूप से जो उपचित पुद्गल हैं, वे तथा तथा रूप से परिणत होते हैं, इसलिए हे आयुष्मन श्रमणो ! कर्म अचेतनकृत नहीं हैं। वे पूदगल दु:स्थान रूप से, दु:शच्या रूप से और 1. (क) बियाहपण्णतिसुत्त' (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ, 749.750 / (ख) व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रथम खण्ड (श्री पागम प्रकाशन समिति व्यावर) श. 3, उ. 1, पृ. 298 2. (क) भगवतो. अ. वत्ति, पत्र 701 (ख) भगवती, (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2523 (ग) महावद्य न--गहितकर्मणेति सावद्या तां ।-अ. वत्ति पत्र 701 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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