________________ 608] [स्यात्याप्रज्ञप्तिसूत्र उद्देशक (सू. 2 से 8 तक) में उक्त नयिक-सम्बन्धी वक्तव्यता के समान यहाँ भी कहना चाहिए यावत् वे प्रात्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से नहीं / 6. रतणप्पभपुढविखुडडागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! को उववज्जति ? एवं जहा ओहियनेरइयाणं वत्तव्वया सच्चेव रयणप्पभाए वि भाणियन्वा जाव नो परप्पयोगेणं उववज्जति / [6 प्र.] भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्म-राशिप्रमाण रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ से प्राकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 16 उ.] गौतम ! औधिक नै रयिकों की जो वक्तव्यता कही है, वही रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के लिए कहनी चाहिए यावत् वे परप्रयोग से उत्पन्न नहीं होते, यहाँ तक जानना / 7. एवं सक्करप्पभाए वि / 8. एवं जाव आहेसत्तमाए / एवं उववानो जहा वक्कंतीए / अस्सण्णी खलु पढमं दोच्चं च सरीसवा ततिय पक्खी। गाहा (पण्णवणासुतं सु० 647 -- 48, गा० 183-84) / एवं उववातेयत्वा / सेसं तहेव / 7-8] इसी प्रकार शर्कराप्रभा (से लेकर) यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक जानना चाहिए। प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार यहाँ भी उपपात जानना चाहिए / यावत् असंज्ञी जीव प्रथम नरक तक, सरीसृप (भुजपरिसर्प) द्वितीय नरक तक और पक्षी तृतीय नरक तक उत्पन्न होते हैं, इत्यादि (प्रज्ञापनासूत्र सू. 647-48, गाथा-१८३-८४ के अनुसार उपपात जानना चाहिए / शेष पूर्ववत् समझना / 6. खड्डातेयोगनेरतिया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? कि नेरइएहितो ? उववातो जहा वक्कतोए / प्र. भगवन् ! क्षद्रव्योज-राशिप्रमाण नै रयिक कहाँसे प्राकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न। [6 उ. इनका उपपात भी प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार जानना चाहिए / 10. ते गं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उक्वज्जति ? गोयमा ! तिन्नि वा, सत्त बा, एक्कारस वा, पन्नरस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववति / सेसं जहा कडजुम्मस्स / [10 प्र. भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [10 उ.] गौतम ! वे एक समय में तीन, सात, ग्यारह, पन्द्रह, संन्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं / शेष सभी कृतयुग्म नै रयिक के समान जानना चाहिए। 11. एवं जाव अहेसत्तमाए / [11] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक समझना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org