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________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 2] [267 लेश्या) होती है तथा इनसे आगे के समस्त कल्पों, नौ ग्रेवेयकों एवं पांच अनुत्तर विमानों में केवल एक शुक्ललेश्या है / मात महाशुक्र से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक परमशुक्ल लेश्या मानी जाती है।' आनतादि देवलोकों में उत्पादादि का अन्तर---पानत आदि देवलोकों में से संख्यात योजन विस्तत विमानावासों में उत्पाद, च्यवन और सत्ता में संख्यात देव होते हैं / असंख्यात योजन विस्तृत पानतादि विमानों में उत्पाद और च्यवन में संख्यात तथा सत्ता में असंख्यात देव होते हैं: क्य गर्भज मनुष्य ही मरकर पानतादि देवों में उत्पन्न होते हैं और वे देव भी, वहाँ से ज्यव कर गर्भज मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं तथा गर्भज मनुष्य संख्यात हो होते हैं / इसलिए एक समय में उत्पाद भी संख्यात का और च्यवन भी संख्यात का हो सकता है। उन देवों का प्रायुष्य असंख्यात वर्ष का होता है, इसलिए उनके जीवनकाल में असंख्यात देव उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनकी अवस्थिति (सत्ता) में असंख्यात की प्ररूपणा की गई है। किन्तु नो इन्द्रियोपयुक्त आदि पांच पदों में उत्कृष्ट संख्यात की प्ररूपणा की गई है, क्योंकि इनका सद्भाव उत्पत्ति के समय ही रहता है और उत्पत्ति संख्यात की ही होती है, यह पहले कहा जा चुका है। पांच अनुत्तर विमानों में उत्पादादि-अनुत्तर विमान पाँच हैं--(१) विजय, (2) वैजयन्त. (3) जयन्त, (4) अपराजित और (5) सर्वार्थसिद्ध / सर्वार्थसिद्ध विमान इन चारों विमानों के मध्य में है। वह एक लाख योजन विस्तत है, इसलिए संख्यात-योजन विस्तत कहा गया है। शेष विजयादि चार अनुतर विमान असंख्यात योजन विस्तृत हैं / इनमें केवल सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनके तीनों पालापकों में कृष्णपाक्षिक, अभव्य एवं तीन अज्ञान वाले जीवों का निषेध किया गया है। __ चरम-अचरम-जिस जीव का अनुत्तरविमान सम्बन्धी अन्तिम भव है, उसे 'चरम' कहा जाता है और जिस जीव का अनुत्तरविमान-सम्बन्धी भव अन्तिम नहीं है, उसे 'अचरम' कहा जाता है। सर्वार्थसिद्ध विमान में केवल चरम ही उत्पन्न होते हैं. इसलिए इसमें अचरम का निषेध किया गया है। किन्तु शेष विजयादि चार अनुत्तरविमानों में तो 'अचरम' भी उत्पन्न होते हैं। कठिन शब्दों का अर्थ-चयावेयन्वा च्यवन सम्वन्धी पाठ कहना चाहिए। णाणतं-नानात्व, विभिन्नता / पण्णत्तेसु-सत्ता विषयक पालापक में। गेवेज्जगा-प्रैवेयक ! अभवसिद्धिया--अभव्यसिद्धिक, अभव्य / खोडिज्जति ---निषेध किये जाते हैं।" 1 (क) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका भा. 10, पृ. 545 (ख) भगवती. . वृत्ति, पत्र 603 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 604 3. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5. पृ. 2172 4. भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टोका) भा. 10, पृ. 553 5. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2166, 2171 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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