________________ 266] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र च्यवते हैं, वे अवधिज्ञान-अवधिदर्शन-युक्त होते हैं, इसलिए उद्वर्तन (च्यवन) में अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी भी कहने चाहिए। भवनपति, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवों से वैमानिक देवों में यह विशेषता है कि असंख्यात योजन विस्तार वाले विमानों से भी अवधिज्ञानी-अवधिदर्शनी तो संख्यात ही च्यवते हैं, क्योंकि अवधिज्ञान-दर्शन युक्त च्यवने वाली वैसी आत्माएँ (तीर्थकर एवं कुछ अन्य के सिवाय) सदैव नहीं होती।' सनत्कुमारादि देवलोकों में स्त्रीवेदी नहीं-सौधर्म और ईशान देवलोक तक ही स्त्रीवेदी देवियाँ उत्पन्न होती हैं। इनके आगे सनत्कुमारादि देवलोकों में स्त्रीवेदी उत्पन्न नहीं होते / जब इनका उत्पाद ही वहाँ नहीं होता, तब सत्ता में भी उनका अभाव ही कहना चाहिए। सनत्कूमारादि में जो देवियां आती हैं, वे नीचे के देवलोक से आती हैं / 2 सनत्कुमारादि कल्पों में संज्ञो की ही उत्पत्ति आदि-इनमें संज्ञी जीव ही उत्पन्न होते हैं, असंज्ञी नहीं / असंज्ञी में उत्पत्ति दूसरे देवलोक तक के देवों की होती है। जब ये यहां से च्यवते हैं, तब भी संजी जीवों में ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए इन देवलोकों में उत्पाद, च्यवन और सत्ता, इन तीनों आलापकों में असंज्ञी का कथन नहीं करना चाहिए। सहस्त्रारपर्यन्त असंख्यात पद की घटना-माहेन्द्र कल्प से लेकर सहस्रार तक के कल्पों में असंख्यात तिर्यञ्चयोनिक जीवों का उत्पाद होने से असंख्यात योजन विस्तृत इन विमानावासों के तीनों पालापकों (उत्पाद, उद्वर्तन और सत्ता) में 'असंख्यात' पद घटित हो जाता है / / इनके विमानावासों तथा लेश्याओं में अन्तर–सौधर्म से लेकर सर्वार्थसिद्ध अनुत्तर विमान तक के विमानावासों की संख्या इस प्रकार है-सौधर्मकल्प में 32 लाख, ईशानकल्प में 28 ला सनत्कुमारकल्प में 12 लाख, माहेन्द्रकल्प में 8 लाख, ब्रह्मलोक में 4 लाख, लान्तककल्प में 50 हजार, महाशुक्र में 40 हजार, सहस्रार में 6 हजार विमानावास हैं। प्रानत और प्राणत कल्प में 400 विमान हैं तथा प्रारण और अच्युत कल्प में 300 विमानावास हैं / नौ अवेयक के प्रथम त्रिक में 111, द्वितीय त्रिक में 107 और तृतीय विक में 100 विमान हैं एवं पांच अनुत्तर विमानों में 5 विमान हैं। इस प्रकार सौधर्म से अनुत्तर विमानों तक कुल विमानों को संख्या 84,67,023 होती है। लेश्या में विभिन्नता इस प्रकार है-प्रथम और द्वितीय कल्प में तेजोलेश्या है; तृतीय, चतुर्थ और पंचम कल्प में पद्मलेश्या अर्थात् तीसरे में तेजो-पद्म, चौथे में पद्म और पांचवें में पद्म-शुक्ल 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 603 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2167 2. (क) भगक्ती. अ. वृत्ति, पत्र 603 (ख) भगवतीसूत्र (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 10, पृ. 542-543 3. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 603 (ख) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 10, पृ. 548 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org