________________ 268] [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चतुर्विध देवों के संख्यात असंख्यातविस्तृत आवासों में सम्यग्दृष्टि आदि के उत्पाद, उद्वर्तन एवं सत्ता की प्ररूपणा 25. चोयट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु असुरकुमारावासेसु कि सम्मद्दिट्ठी असुरकुमारा उववज्जंति, मिच्छट्टिी? 0 एवं जहा रयणप्पमाए तिन्नि अालावगा भणिया तहा भाणियन्वा / एवं असंखेज्जवित्थडेसु यि तिन्नि गमा / 25 प्र.] भगवन् ! क्या असुरकुमार देवों के चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से संख्यातयोजन-विस्तृत असुरकुमारावासों में सम्यग्दृष्टि असुरकुमार उत्पन्न होते हैं अथवा मिध्यादृष्टि उत्पन्न होते हैं, मिश्र (सम्यमिथ्या) दृष्टि उत्पन्न होते हैं ? [25 उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी के सम्बन्ध में तीन पालापक कहे, उसी प्रकार यहाँ भी कहने चाहिए और असंख्यात योजन विस्तृत असुर कुमारावासों के विषय में भी इसी प्रकार तीन सालापक कहने चाहिए। 26. एवं जाव गेवेज्जविमाणेसु / [26] इसी प्रकार (नागकुमारावासों से लेकर) यावत् ग्रंवेयकविमानों (तक) के विषय में कहना चाहिए। 27. अणुत्तरविमाणेसु एवं चेव, नवरं तिसु वि आलावएसु मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छट्ठिी य न भण्णंति / सेसं तं चेव। [27] अनुत्तरविमानों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष बात यह है कि अनुत्तरविमानों के तीनों पालापकों में मिथ्यादृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि का कथन नहीं करना चाहिए / शेष सभी वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। विवेचन-देवों के दृष्टिविषयक आलापक--प्रस्तुत तीन सूत्रों (25 से 27) में चारों प्रकार के देवों में दृष्टिविषयक आलापकत्रय का निरूपण किया गया है। ___पांच अनुत्तरविमानों में एकान्त सम्यग्दृष्टि हो-उत्पन्न होते हैं, च्यवते हैं और सत्ता में रहते हैं / इसलिए शेष दोनों दृष्टियों का निषेध किया गया है।" एक लेश्या वाले का दूसरी लेश्यावाले देवों में उत्पाद-प्ररूपण 28. से नूणं भंते ! कण्हलेस्से नोल• जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु देवेसु उववज्जति ? हंता, गोयमा ! 0 एवं जहेव नेरइएसु पढमे उद्देसए तहेव भाणियव्वं / [28 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यी नीललेश्यी थावत् शुक्ललेश्यी (से परिवर्तित) होकर जीव कृष्णलेश्यो देवों में उत्पन्न हो जाता है ? 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 604 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2174 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org