________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 2] [269 [28 उ.] हाँ, गौतम ! जिस प्रकार (तेरहवें शतक के) प्रथम उद्देशक में नैरयिकों के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए / 29. नोललेसाए वि जहेव नेरइयाणं जहा नीललेस्साए / [29] नीललेश्वी के विषय में भी उसी प्रकार कहना चाहिए, जिस प्रकार नीललेश्यी नैरयिकों के विषय में कहा है / 30. एवं जाव पम्हलेस्सेसु / [30] (जिस प्रकार नीललेश्यी देवों के विषय में कहा है), उसी प्रकार यावत् (कापोत, तेजस्, एवं) पद्मलेश्यो देवों के विषय में कहना चाहिए। 31. सुक्कलेस्सेस एवं चेव, नवरं लेसाठाणेसु विसुज्झमाणेसु विसुज्झमाणेसु सुक्कलेस्सं परिणमति सुक्कलेसं परिणमित्ता सुक्कलेस्सेसु देवेसु उववज्जति, से तेण?णं जाव उववति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / / / तेरसमे सए : बीओ उद्देसओ समत्तो॥ [31] शुक्ललेश्यी देवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए / विशेषता यह है कि लेश्यास्थान विशुद्ध होते-होते शुक्ललेश्या में परिणत हो जाते हैं ! शुक्ललेश्या में परिणत होने के पश्चात् ही (वे जीव) शुक्ललेश्यी देवों में उत्पन्न होते हैं / इस कारण से हे गौतम ! यावत् 'उत्पन्न होते हैं ऐसा कहा गया है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-देवों में लेश्या-परिवर्तन-नैरयिकों की तरह देवों में भी अप्रशस्त से प्रशस्तप्रशस्ततर और प्रशस्त-प्रशस्ततर से अप्रशस्त-अप्रशस्ततर लेश्या के रूप में परिवर्तन होता है। यह कथन भावलेश्या के विषय में समझना चाहिए, जो मूल में स्पष्ट किया गया है / ॥तेरहवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org