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________________ [ 25 प्रथम शतक : उद्देशक-१] गोयमा ! असुरकुमाराणं दुविहे पाहारे पण्णत्ते / तं जहा-प्राभोगनिवत्तिए य, प्रणामोगनिव्वत्तिए य / तत्थ गंजे से प्रणामोगनिव्वत्तिए से अणसमयं अविरहिए पाहारट्टे समुप्पज्जइ / तत्थ गं जे से आभोगनिव्वत्तिए से जहन्नेणं च उत्थभत्तस्स, उक्कोसेणं साइरेगस्स वाससहस्सस्स प्राहार? समुष्पज्जइ / [2.4 प्र.] हे भगवन् ! असुरकुमारों को कितने काल में आहार को इच्छा उत्पन्न होती है ? [2.4 उ.] गौतम ! असुरकुमारों का आहार दो प्रकार का कहा गया है। जैसे किआभोगनित्तित और अनाभोग-नित्तित / इन दोनों में से जो अनाभोग-निर्वतित (बुद्धिपूर्वक न होने वाला) आहार है, वह विरहरहित प्रतिसमय (सतत) होता रहता है / (किन्तु) आभोगनिर्वत्तित आहार की अभिलाषा जघन्य चतुर्थभक्त अर्थात्-एक अहोरात्र से और उत्कृष्ट एक हजार वर्ष से कुछ अधिक काल में होती है। (2.5) असुरकुमारा णं भंते ! कि प्राहारं माहारेंति ? गोयमा! दवप्रो प्रणंतपएसियाई दवाई, खित्त-काल-भावा पण्णवणागमेणं। सेसं जहा नेरइयाणं जाव ते णं तेसि पोग्गला कोसत्ताए भज्जो भुज्जो परिणमंति ? गोयमा ! सोइंदियत्ताए 5' सुरूवत्ताए सुवष्णताए इद्वत्ताए इच्छियत्ताए अभिझियत्ताए, उड्ढताए, णो ग्रहत्ताए, सुहत्ताए, णो दुहत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति / [2.5 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार किन पुद्गलों का आहार करते हैं ? [2.5 उ.] गौतम ! द्रव्य से अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का आहार करते हैं / क्षेत्र, काल और भाव को अपेक्षा से प्रज्ञापनासूत्र का वही वर्णन जान लेना चाहिए, जो नै रयिकों के प्रकरण में कहा गया है। (प्र.) हे भगवन् ! असुरकुमारों द्वारा आहार किये हुए पुद्गल किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं ? (उ.) हे गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रिय रूप में, सुन्दर रूप में, सु-वर्णरूप में, इष्ट रूप में, इच्छित रूप में, मनोहर (अभिलषित) रूप में, ऊर्ध्वरूप में परिणत होते हैं, अधःरूप में नहीं; सुखरूप में परिणत होते हैं, किन्तु दुःखरूप में परिणत नहीं होते / (2.6) प्रसुरकुमाराणं पुवाहारिया पुग्गला परिणया? असुरकुमाराभिलावेणं जहा नेरइयाणं जाव' / चलियं कम्म निज्जरंति / [2.6 प्र.] हे भगवन् ! क्या असुरकुमारों द्वारा बाहृत-पहले आहार किये हुए पुद्गल परिणत हुए ? 1. 'इंदियत्ताए' के प्रागे '5' का अंक शेष चक्षरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय एवं स्पर्शनेन्द्रिय का सूचक है। 2. असुरकुमारों के विषय में 'चलियं कम्मं निज्जरंति' पर्यन्त शेष प्रश्न प्रज्ञापनामुत्रानुसार नारकों की तरह समझ लेने चाहिए / इसी बात के द्योतक 'जहा' और 'जाव' शब्द हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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