________________ 252] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र एवं जहा पंकप्पभाए / नवरं तिसु नाणेसु न उववज्जति न उन्वति / पन्नत्तएसु तहेव अस्थि / एवं असंखेज्जविस्थडेसु वि / नवरं असंखेज्जा भाणियन्वा / [18 प्र.] भगवन् ! अधःसप्तमपृथ्वी के पांच अनुतर और बहुत बड़े यावत् महानरकों में से संख्यात योजन विस्तार वाले अप्रतिष्ठान नरकावास में एक समय में कितने नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [18 उ.] गौतम ! जिस प्रकार पंकप्रभा के विषय में कहा, (उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए / ) विशेष यह है कि यहाँ तीन ज्ञान वाले न तो उत्पन्न होते हैं, न ही उद्वर्तन करते हैं / परन्तु इन पांचों नरकावासों में रत्नप्रभापृथ्वी आदि के समान तीनों ज्ञान वाले पाये जाते हैं। जिस प्रकार संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में कहा उसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकवासों के विषय में भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ 'संख्यात' के स्थान पर 'असंख्यात' पाठ कहना चाहिए। विवेचन--प्रस्तुत नौ सूत्रों (10 से 18 तक) में रत्नप्रभापथ्वी के सिवाय शेष छह नरकपृश्वियों के नरकावास तथा उनके विस्तार तथा उनमें उत्पत्ति, उद्वर्तना और सत्ता (विद्यमानता), इन पालापकत्रय के विषय में विविध प्रवान्तर प्रश्न और इनके समाधानों का संकेत किया गया है।' असंज्ञी जीवों के उत्पादादि प्रथम नरक में ही क्यों ?—चुकि असंज्ञी जीव प्रथम नरक पृथ्वी में ही उत्पन्न होते हैं, उससे आगे की पृथ्वियों में नहीं। इसलिए द्वितीय नरकपृथ्वी से लेकर सप्तम नरक, पृथ्वी तक में उनकी उत्पत्ति, उद्वर्तना और सत्ता, ये तीनों बातें नहीं कहनी चाहिए।' लेश्याओं के विषय में सातों नरक में विभिन्नता लेश्याओं के विषय में जो विशेषता (नानात्व) कही गई है, वह प्रथम शतक पंचम उद्देशक के 28 वें सूत्र के अनुसार जाननी चाहिए। वहाँ की संग्रहगाथा इस प्रकार है काऊ दोसु तइयाइ मीसिया नीलिया च उत्थीए / पंचमियाए मीसा कण्हा, तत्तो परमकण्हा // अर्थात-पहली और दूसरी नरक में कापोतलेश्या, तीसरी नरक में कापोत और नील दोनों (मिश्र) लेश्याएँ, चौथी नरक में नील लेश्या, पंचम नरक में नील और कृष्ण मिश्र तथा छठी नरक में कृष्णलेश्या और सातवीं नरक में परम कृष्णलेश्या होती है। पंकप्रभापृथ्वी में अवधिज्ञानी-अवधिदर्शनी क्यों नहीं ?-चौथी पंकप्रभा नरकपृथ्वी में से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी उद्वर्तन नहीं करते ; क्योंकि नरक में अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी प्रायः तीर्थकर ही होते हैं, जो कि तृतीय नरकभूमि तक ही होते हैं। चौथी नरक से सातवीं ....... ...... .... 1. वियाहपण्णत्तिमुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 619-620 2. 'असन्नी खलु पढम' इति वचनात् / -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 600 3. (क) भगवती. श. 1, उ. 5, सू. 28, पृ. 102 (श्री आगमप्रकाशन समिति, व्यावर) खण्ड 1 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 600 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org