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________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 1] [253 नरक तक से निकलते हुए जीव तीर्थंकर नहीं हो सकते ओर वहाँ से निकलने वाले (उद्वर्तन करने वाले) जीव भी अवधिज्ञान-प्रवधिदर्शन लेकर नहीं निकलते / ' सप्तम नरकपृथ्वी में सब मिथ्यात्वी ही क्यों ? सातवीं नरक में मिथ्यात्वी या सम्यक्त्वभ्रष्ट जीव हो उत्पन्न होते हैं। इस कारण इस नरक में मति-श्रुत-अवधिज्ञानी उत्पन्न नहीं होते तथा इनकी उद्वर्तना भी नहीं होती; क्योंकि वहाँ से निकले हुए जीव इन तीनों ज्ञानों में उत्पन्न नहीं होते / यद्यपि सातवीं नरक में प्राय: मिथ्यात्वी जीव ही उत्पन्न होते हैं, तथापि वहाँ उत्पन्न होने के पश्चात् जीव सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है / सम्यक्त्व प्राप्त कर लेने पर वहाँ मतिज्ञानी, श्रुतजानी और अवधिज्ञानी पाये जा सकते हैं। इसीलिए यहां कहा गया है कि सातवीं नरक में तीन ज्ञान वाले जीवों का उत्पाद और उद्वर्तना तो नहीं है, किन्तु सत्ता है।' संख्यात असंख्यात-विस्तृत नरकों में सम्या-मिथ्या मिश्रदृष्टि नयिकों के उत्पादउद्वर्तना एवं अविरहित-विरहित की प्ररूपणा 19. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससतसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु कि सम्मट्ठिी नेरतिया उववज्जंति, मिच्छट्टिी नेरइया उववज्जति, सम्मामिच्छदिट्टी नेरतिया उववज्जति ? गोयमा ! सम्मदिट्ठी वि नेरतिया उववज्जति, मिच्छट्ठिी वि नेरतिया उक्वज्जति, नो सम्मामिच्छद्दिद्वी नेरतिया उववज्जति / [16 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं, अथवा सम्य मिथ्या (मिश्र) दृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? [16 उ.] गौतम ! (पूर्वोक्त नरकावासों में) सम्यग्दृष्टि नैरपिक भी उत्पन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि नैरयिक भी उत्पन्न होते हैं, किन्तु सम्यग् मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न नहीं होते / 20. इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु किं सम्मदिट्ठी नेरतिया उव्वति ?o, एवं चेव / [20 प्र.] इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन-विस्तृत नरकावासों से क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिक उद्वर्तन करते हैं ? इत्यादि प्रश्न / {20 उ.] हे गोतम ! उसी तरह (पूर्ववत्) समझना चाहिए / (अर्थात् पूर्वोक्त नरकावासों से सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि नैरयिक उद्वर्तन करते हैं, परन्तु सम्यगमिथ्यादष्टि नैरयिक उद्वर्तन नहीं करते / ) 1. भगवती. अ. बृत्ति, पत्र 600 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 600 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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