________________ 254 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 21. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडा नरगा कि सम्मट्टिीहि नेरइएहिं अविरहिया, मिच्छादिट्ठोहि नेरइएहि अविरहिया, सम्मामिच्छादिट्ठीहि नेरइएहिं अविरहिया ? ___ गोयमा ! सम्मट्ठिीहि वि नेरइएहि अविरहिया, मिच्छादिट्ठीहि वि नेरइएहि अविरहिता, सम्मामिच्छादिट्ठीहि नेरइएहि अविरहिया विरहिया वा। [21 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन. विस्तृत नरकावास क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिकों से अविरहित (सहित) हैं, मिथ्यादृष्टि नै रयिकों से अविरहित हैं अथवा सम्बमिथ्यादृष्टि नैरयिकों से अविरहित हैं ? [21 उ.] गौतम ! (पूर्वोक्त नरकावास) सम्यग्दृष्टि नै रयिकों से भी अविरहित होते हैं तथा मिथ्यादष्टि नैरयिकों से भी अविरहित होते हैं और सम्यगमिथ्यादृष्टि नैरयिकों से (कदाचित्) अविरहित होते हैं और (कदाचित्) विरहित होते हैं / 22. एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि तिणि गमगा भाणियन्वा / [22] इसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में भी तीनों ग्रालापक कहने चाहिए। 23. एवं सक्करप्पभाए वि / एवं जाव तमाए। [23] इसी प्रकार शर्कराप्रभा से लेकर यावत् तमःप्रभापृथ्वी तक के (संख्यात, असंख्यात योजन विस्तृत नरकावासों के सम्यग्दृष्टि आदि नैरयिकों के) विषय में (तीनों पालापक कहने चाहिए।) 24. अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु जाव संखेज्जवित्थडे नरए कि सम्मदिट्ठी नेरइया० पुच्छा। ___ गोयमा ! सम्मट्ठिी नेरइया न उववज्जति, मिच्छट्टिी नेरइया उववज्जति, सम्मामिच्छट्टिी नेरइया न उववज्जति। [24 प्र.] भगवन् ! अधःसप्तमपृथ्वी के पांच अनुत्तर यावत् संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [24 उ.] गौतम ! (वहाँ) सम्यग्दृष्टि नैरयिक उत्पन्न नहीं होते, मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं और सम्यग्-मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न नहीं होते / 25. एवं उन्वति वि। [25] इसी प्रकार (उत्पाद के समान) उद्वर्तना के विषय में भी कहना चाहिए। 26. अविरहिए जहेव रयणप्पभाए / [26] रत्नप्रभा में सत्ता के समान यहाँ भी मिथ्यादृष्टि द्वारा अविरहित आदि के विषय में कहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org