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________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 1] [255 27. एवं असंखेजवित्थडेसु वि तिग्णि गमगा। [27] इसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में (पूर्वोक्त) तीनों आलापक कहने चाहिए। विवेचन—प्रस्तुत नौ सूत्रों (मू. 16 से 27 तक) में रत्नप्रभा से लेकर अधःसप्तमपृथ्वी के संख्यात योजन एवं असंख्यात योजन विस्तृत नरकावासों में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रष्टि इन तीनों प्रकार के नैरयिकों की उत्पत्ति, उद्वर्तना एवं अविरहितता-विरहितता के विषय में प्रश्नों का समाधान किया गया है।' सम्यगमिथ्यादृष्टि नैरयिकों का कदाचित् विरह क्यों ?-सम्यमिथ्यादृष्टि नारक कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं भी होते, इसलिए उनका विरह हो सकता है / मिश्रदृष्टि नैरयिक उत्पन्न नहीं होते क्योंकि 'न सम्मामिच्छो कुणइ कालं / अर्थात्सम्यमिथ्यादृष्टि जीव सम्यमिथ्यादृष्टि अवस्था में काल नहीं करता, ऐसा सिद्धान्तवचन है / अतः न तो मिश्रदृष्टि उक्त अवस्था में मरता है और न तद्भवप्रत्यय अवधिज्ञान उसे होता है, जिससे कि मिश्रदष्टि अवस्था में वह उत्पन्न हो। लेश्याओं का परस्पर परिणमन एवं तदनुसार नरक में उत्पत्ति का निरूपण 28. [1] से नणं भंते ! कण्हलेस्से नीललेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु नेरइएसु उववज्जति ? हंता, गोयमा ! कण्हलेस्से जाव उववज्जति / [28-1 प्र. भगवन ! क्या वास्तव में कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी, यावत शुक्ललेश्यी (कृष्णलेश्यायोग्य) बन कर (जीव पुनः) कृष्णलेश्यी नैरयिकों में उत्पन्न हो जाता है ? [28-1 उ.] हाँ, गौतम ! (वह) कृष्णलेश्यी यावत् (बनकर) (पुनः) कृष्णलेश्यी नैरयिकों में उत्पन्न हो जाता है। [2] से केपट्टणं भंते ! एवं बुच्चइ 'कण्हलेस्से जाव उववज्जति' ? गोयमा ! लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्समाणेसु संकिलिस्तमाणेसु कण्हलेसं परिणमइ, कण्हलेसं परिणमित्ता कण्हलेस्सेसु नेरइएसु उववज्जंति, से तेण?णं नाव उववज्जति / [28-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि (वह कृष्णलेश्यी प्रादि हो कर (पुन:) कृष्णलेश्यी नारकों में उत्पन्न हो जाता है ? [28-2 उ.] गौतम ! उसके लेश्यास्थान संक्लेश को प्राप्त होते-होते (क्रमश:) कृष्णलेश्या के रूप में परिणत हो जाते हैं और कृष्णलेश्या के रूप में परिणत हो जाने पर वह जीव कृष्णलेश्या 1. वियाहपणत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 620.621 2. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 600 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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