________________ तृतीय शतक : उद्देशक-७] [ 379 उत्तर में है / इस सम्बन्ध में सारा वर्णन सोम महाराज के महाविमान की तरह जानना चाहिए; और वह यावत् राजधानी यावत् प्रासादावतंसक तक का वर्णन भी उसी तरह जान लेना चाहिए / [2] सक्कस्स णं देविदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारणो इमे देवा प्राणा-उववाय-वयणनिद्देसे चिट्ठति, तं जहा-वेसमणकाइया ति वा, वेसमण-देवयकाइया ति वा, सुवण्णकुमारा सुवण्णकुमारीओ, दीवकुमारा दीवकुमारीओ, दिसाकमारा दिसाकुमारीनो, वाणमंतरा वाणमंतरीमो, जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वे ते तम्भत्तिया जाव चिट्ठति / [7-2] देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वैश्रमण महाराज की आज्ञा, सेवा (उपपात-निकट) वचन और निर्देश में ये देव रहते हैं / यथा-वैश्रमणकायिक, वैश्रमणदेवकायिक, सुवर्णकुमार-सुवर्णकुमारियाँ, द्वीपकुमार-द्वीपकुमारियाँ, दिककुमार-दिककुमारियाँ, वाणव्यन्तर देव-वाणव्यन्तर देवियाँ, ये और इसी प्रकार के अन्य सभी देव, जो उसकी भक्ति, पक्ष और भृत्यता (या भारवहन) करते हैं, उसकी प्राशा आदि में रहते हैं / [3] जंबुद्दीवे 2 मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणणं जाई इमाइं समुप्पज्जति, तं जहा-प्रयागरा इ वा, तउयागरा इ वा, तंबयागरा इ वा, एवं सीसागरा इ वा, हिरण्ण०, सुवण्ण०, रयण 0, क्यरागरा इ वा, वसुधारा तिवा, हिरण्णवाता तिवा, सुवण्णवासा ति वा, रयण, वइर०, ग्राभरण०, पत्ता, पुप्फ०, फल०, बोय०, मल्ल०, वण०, चुण्ण , गंध०, वत्थवासा इ वा, हिरण्णबुट्ठी इ वा, सु०, 20, व०, प्रा०, प०, पु०, फ०, बी०, म०, 20, चुण्ण 0, गंधवुट्ठी०, वत्थवुट्ठी ति वा, भायणबुट्ठी ति वा, खीरवुट्ठी ति वा, सुकाला ति वा, दुक्काला ति वा, अप्पग्घा ति वा, महग्घा ति वा, सुभिक्खा ति वा, दुभिक्खा ति वा, कयविक्कया ति वा, सन्निहि ति वा, सन्निचया ति वा, निही ति वा, णिहाणा ति वा, चिरपोराणाइ वा, पहीणसामियाति वा, पहीणसे तुयाति वा, पहोणमग्गाणि वा, पहोणगोत्तागाराइ वा उच्छन्नसामियाति वा उच्छन्नसेतुयाति वा, उच्छन्नगोत्तागाराति वा सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चरचउम्मुह-महापह-पहेसु नगर-निद्धमणेसु सुसाण-गिरि-कंदर-संति-सेलोवढाण-भवणगिहेसु सम्निविखताई चिट्ठति, ण ताई सक्कस्स देविदस्स देबरणो वेसमगस्त महारण्णो अण्णायाई अदिट्ठाइं असुयाई प्रविन्नायाई, तेसि वा वेसमणकाइयाणं देवाणं / [7-3] जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दरपर्वत से दक्षिण में जो ये कार्य उत्पन्न होते हैं, जैसे कि-लोहे की खाने, रांगे की खानें, ताम्बे को खानें, तथा शीशे की खाने, हिरण्य (चांदी) की, सुवर्ण की, रत्न की और वज्र की खाने, वसुधारा, हिरण्य की, सुवर्ण की, रत्न को, आभरण की, पत्र की, पुष्प की, फल की, बीज की, माला की, वर्ग की. चूर्ण की, गन्ध की और वस्त्र की वर्षा, भाजन (बर्तन) और क्षीर को वृष्टि, सुकाल, दुष्काल, अल्पमूल्य (सस्ता), महामूल्य (महंगा), सुभिक्ष (भिक्षा की सुलभता), दुर्भिक्ष (भिक्षा की दुर्लभता), क्रय-विक्रय (खरीदना-बेचना) सन्निधि (घी, गुड़ आदि का संचय), सन्निचय (अन्न प्रादि का संचय), निधियाँ (खजाने-कोष), निधान (जमीन में गड़ा हुआ धन), चिर-पुरातन (बहुत पुराने), जिनके स्वामी समाप्त हो गए, जिनकी सारसंभाल करने वाले नहीं रहे, जिनकी कोई खोजखबर (मार्ग) नहीं है, जिनके स्वामियों के गोत्र और प्रागार (घर) नष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org