SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 380 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हो गए, जिनके स्वामी उच्छिन्न (छिन्नभिन्न) हो गए, जिनकी सारसंभाल करने वाले छिन्न-भिन्न हो गए, जिनके स्वामियों के गोत्र, और घर तक छिन्नभिन्न हो गए, ऐसे खजाने शृगाटक (सिंगाड़े के आकार वाले) मार्गों में, त्रिक (तिकोने मार्ग), चतुष्क (चौक), चत्वर, चतुर्मुख एवं महापथों, सामान्य मार्गों, नगर के गन्दे नालों में श्मशान, पर्वतगृह गुफा (कन्दरा), शान्तिगृह, शैलोपस्थान (पर्वत को खोद कर बनाए गए सभा-स्थान), भवनगृह (निवास-गृह) इत्यादि स्थानों में गाड़ कर रखा हुआ धन, ये सब पदार्थ देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वैश्रमण महाराज से अथवा उसके वैश्रमणकायिक देवों से अज्ञात, अदृष्ट (परोक्ष), अश्रुत, अविस्मृत और अविज्ञात नहीं हैं। [4] सक्कस्स गं देविदस्स देवरगणो वेसमणस्स महारणो इमे देवा प्रहावच्चाभिण्णाया होत्था, तं जहा-पुण्णभद्दे माणिभद्दे सालिभद्दे सुमणभद्दे चक्करक्खे पुण्णरक्खे सम्वाणे सब्बजसे सम्बकामसमिद्ध अमोहे असंगे / [7-4] देवेन्द्र देवराज शक्र के (चतुर्थ) लोकपाल वैश्रमण महाराज के ये देव अपत्यरूप से अभीष्ट हैं; वे इस प्रकार हैं—पूर्णभद्र, मणिभद्र, शालिभद्र, सुमनोभद्र, चक्र-रक्ष, पूर्ण रक्ष, सद्वान, सर्वयश, सर्वकामसमृद्ध, अमोघ और प्रसंग / [5] सक्कस्स णं देविदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारष्णो दो पलिग्रोवमाणि ठिती पण्णत्ता / अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एग पलिनोवमं ठिती पण्णत्ता / एमहिड्डीए जाव वेसमणे महाराया। सेव भंते ! सेवं भंते ! तिः / // तइयसते : सत्तमो उद्देसमो समतो॥ [7-5] देवेन्द्र देवराज शक्र के (चतुर्थ) लोकपाल-वैश्रमण महाराज की स्थिति दो पल्योपम की है; और उनके अपत्य रूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम की है। इस प्रकार वैश्रमण महाराज बड़ी ऋद्धि वाला यावत् महाप्रभाव वाला है। 'हे भगवन् यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरण करने लगे। विवेचन-वैश्रमण लोकपाल के विमानस्थान प्रादि से सम्बन्धित वर्णन प्रस्तुत 7 वें सूत्र में शास्त्रकार ने वैश्रमण लोकपालदेव के विमानों की अवस्थिति, उसकी लम्बाई-चौड़ाई-ऊँचाई आदि परिमाण, वैश्रमण लोकपाल की राजधानी, प्रासाद ग्रादि का, तथा वैश्रमण महाराज के आज्ञानुवर्ती भक्ति-सेवा-कार्यभारवहनादि कर्ता देवों का, मेरु पर्वत के दक्षिण में होने वाले धनादि से सम्बन्धित कार्यों की समस्त जानकारी का एवं वैश्रमण महाराज के अपत्यरूप से माने हुए देवों का तथा उसकी तथा उसके अपत्यदेवों की स्थिति आदि का समस्त निरूपण किया गया है / वैश्रमणदेव को लोक में कुबेर, धनद एवं धन का देवता कहते हैं / धन, धान्य, निधि, भण्डार आदि सब इसी लोकपाल के अधीन रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy