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________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] और विषय-विकारों में तेरी उत्सुकता समाप्त हो जाए, तब हमारे कालधर्म को प्राप्त हो जाने पर यावत् तू प्रजित हो जाना / विवेचन-माता-पिता द्वारा भुक्तभोगी होने के बाद दीक्षा लेने का अनुरोध-प्रस्तुत सूत्र में माता-पिता द्वारा जमालि को समझाया गया है कि तू अपनी इन पाठ सर्वगुणसम्पन्ना सर्वांगसुन्दरी पत्नियों के साथ मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का उपभोग करके भुक्तभोगी होने के पश्चात् दीक्षित होना / कठिन शब्दों का भावार्थ-विपुलकुलबालियानो-विशाल कुल की बालाएँ / कलाकुसल. सव्वकाललालिय-सुहोचियाओ--कलाओं में दक्ष, सदैव लाड़प्यार में पली एवं सुखशील / मद्दबगुणजुत्त-निउण-विणप्रोवयारपंडिय-वियवखणाओ--- मृदुता के गुणों से युक्त, निपुण एवं विनयव्यवहार में पण्डिता तथा विचक्षणा हैं। मंजुल-मिय-महुर-भणिय-विहसिय-विप्पेविखय-गति-विलासचिट्ठिय-विसारदाप्रो-मंजुल, परिमित एवं मधुरभाषिणी हैं ; हास्य, प्रेक्षण, गति (चाल), विलास एवं चेष्टानों में विशारद हैं। अविकलकुलसीलसालिणीप्रो-निर्दोष कुल और शील से सुशोभित हैं। विसुद्धकुलवंससंताणतंतुवद्धण-पगन्भ-वय-भाविणीप्रो-विशुद्ध कुल की वंश-परम्परा रूपी तन्तु को बढ़ाने वाली एवं प्रगल्भ-पूर्ण यौवन वय वाली हैं। मणाणुकूल-हियइच्छियाओ= मनोनुकल हैं और हृदय को अभीष्ट हैं / भावाणुरत्तसव्वंगसुन्दरीओ---ये तेरी भावनाओं में अनुरक्त हैं और सर्वांगसुन्दरी हैं। विसयविगयवोच्छिन्नकोउहल्ले-विषय-विकारों (विकृतों) सम्बन्धी उत्सुकता क्षीण हो जाने पर / 40. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं क्यासी-तहा विणं तं अम्म ! तानो! जं णं तुम्भे मम एवं वयह 'इमाओ ते जाया ! विपुलकुल० जाव पब्वइहिसि' एवं खलु अम्म ! ताओ! माणुस्सगा कामभोगा' उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणग-वंत-पित्त-पूय-सुक्क-सोणियसमुभवा अमणुण्णदुरूव-मुत्त-पूइयपुरीसपुण्णा भयगंधुस्सासअसुभनिस्सासा उध्वेयणगा बीभच्छा अप्पकालिया लहुसगा कलमलाहिवासदुक्खबहुजणसाहारणा परिकिलेस-किच्छदुक्खसज्झा अबुहजणसेविया सदा साहुगरहणिज्जा अणंतसंसारवद्धणा कडुयफलविवागा चुलि व्व अमुच्चमाण दुक्खाणुबंधिणो सिद्धिगमणविघा, से केस पं. जाणति अम्म ! ताओ ! के पुब्बि गमणयाए ? के पच्छा गमणयाए ? तं इच्छामि णं अम्म! ताओ ! जाव पव्वइत्तए। [40] माता-पिता के पूर्वोक्त कथन के उत्तर में जमालि क्षत्रियकुमार ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा--हे माता-पिता ! तथापि आपने जो यह कहा कि विशाल कुल में उत्पन्न तेरी ये आठ पत्नियां हैं, यावत् भुक्तभोग और वृद्ध होने पर तथा हमारे कालधर्म को प्राप्त होने पर दीक्षा लेना, किन्तु माताजी और पिताजी ! यह निश्चित है कि ये मनुष्य-सम्बन्धी कामभोग अशुचि (अपवित्र) और अशाश्वत हैं,] मल (उच्चार), मूत्र, श्लेष्म (कफ), सिंघाण (नाक का मैल-लीट), वमन, पित्त, मवाद (पूति), शुक्र और शोणित (रक्त या रज) से उत्पन्न होते हैं, ये अमनोज्ञ और दुरूप (असुन्दर) 1. वियाहपष्णतिसुत्तं (मू. पा, हि.), भा. 1, पृ. 462 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 470 3. अधिक पाठ--"असुई असासया वंतासवा पित्तासवा खेलासवा सुक्कासवा सोणियासवा / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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