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________________ 532] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र मूत्र तथा दुर्गन्धयुक्त विष्ठा से परिपूर्ण हैं ; मृत कलेवर के समान गन्ध वाले उच्छ्वास एवं अशुभ नि:श्वास से युक्त होने से उद्वेग (ग्लानि) पैदा करने वाले हैं / ये बीभत्स हैं, अल्पकालस्थायी हैं, तुच्छस्वभाव के हैं, कलमल (शरीर में रहा हुमा एक प्रकार का अशुभ द्रव्य) के स्थानरूप होने से दुःखरूप हैं और बहु-जनसमुदाय के लिए भोग्यरूप से साधारण हैं, ये अत्यन्त मानसिक क्लेश से तथा गाढ शारीरिक कष्ट से साध्य हैं / ये अज्ञानी जनों द्वारा ही सेवित हैं, साधु पुरुषों द्वारा सदैव निन्दनीय (गर्हणीय) हैं, अनन्त संसार की वृद्धि करने वाले हैं, परिणाम में कटु फल वाले हैं, जलते हुए घास के पूले के समान (एक वार लग जाने के बाद) कठिनता से छूटने वाले तथा दुःखानुबन्धी हैं, सिद्धि (मुक्ति) गमन में विघ्नरूप हैं / अतः हे माता-पिता ! यह भी कौन जानता है कि हममें से कौन पहले जाएगा, कौन पीछे ? इसलिए हे माता-पिता ! आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ। विवेचन- कामभोगों से विरक्ति-सम्बन्धी उद्गार-जमालि ने प्रस्तुत सूत्र में काम भोगों की बीभत्सता, परिणाम में दुःखजनकता, संसारपरिवर्धकता बताई है।' कठिन शब्दों का भावार्थ पूइयपुरीसपुण्णा-मवाद अथवा दुर्गन्धित विष्ठा से भरपूर हैं / मयगंधुस्सास-असुभनिस्सासा-उव्वेयणगा-- मृतक-सी गन्ध वाले उच्छ्वास और अशुभ निःश्वास से उद्वेगजनक हैं / लहुसगा--लघु-हलकी कोटि के हैं / कलमलाहिवासदुक्खबहुजणसाहारणा-शरीरस्थ अशुभ द्रव्य के रहने से दुःखद हैं और सर्वजनसाधरण हैं / परिकिलेस-किच्छदुक्खसज्मा-परिक्लेशमानसिक क्लेश तथा गाढ़ शरीरिक दुःख से साध्य हैं / चुडलि व्व अमुच्चमाण-घास के प्रज्वलित पूले के समान बहुत कष्ट से छूटने वाले हैं / दुवखाणुबंधिणो –परम्परा से दुःखदायक हैं / 2 'कामभोग' शब्द का प्राशय यहाँ 'कामभोग' शब्द से उनके आधारभूत स्त्रीपुरुषों के शरीर का ग्रहण करना अभिप्रेत है। 41. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं वयासी-इमे य ते जाया ! अज्जयपज्जय-पिउपज्जयागए सुबहुहिरणे य सुवणे य कसे य दूसे य विउलधणकणग० जाव संतसारसावएज्जे अलाहि जाव आसत्तमानो कुलवंसानो पकामं दातु, पकामं भोत्तु, पकामं परिभाएउं, तं अणुहोहि ताव जाया ! विउले माणुस्सए इडिसक्कारसमुदए, तो पच्छा अणुहूयकल्लाणे वड्डियकुलवंसतंतु जाव पन्वइहिसि। _[41] तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि से उसके माता-पिता ने इस प्रकार कहा-'हे पुत्र ! तेरे पितामह, प्रपितामह और पिता के प्रपितामह से प्राप्त यह बहुत-सा हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य, उत्तम वस्त्र (दूष्य), विपुल धन, कनक यावत् सारभूत द्रव्य विद्यमान है / यह द्रव्य इतना है कि सात पीढ़ी (कुलवंश) तक प्रचुर (मुक्त हस्त से) दान दिया जाय. पुष्कल भोगा जाय, और बहुत-सा बांटा जाय, तो भी पर्याप्त है (समाप्त नहीं हो सकता) / अतः हे पुत्र ! मनुष्य-सम्बन्धी इस विपुल ऋद्धि और 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त, (मूलपाठटिप्पण) भा. 1, पृ. 462 2. भगवती. अं० वृत्ति, पत्र 470 3. वही, पत्र 470 ; 'यह कामभोगग्रहणेन तदाधारभूतानि स्त्रीपुरुषशरीराण्यभिप्रेतानि / ' 4. 'जाव' पद सूचित पाठ-"रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्यबाल-रत्तरयणमाइए।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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