________________ नवम शतक : उद्देशक- 33] सत्कार (सत्कार्य) समुदाय का अनुभव कर / फिर इस कल्याण (सुखरूप पुण्यफल) का अनुभव करके और कुलवंशतन्तु की वृद्धि करने के पश्चात् यावत् तू प्रवजित हो जाना ! 42. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरी एवं क्यासी तहा--वि णं तं अम्म ! ताओ ! जं गं तुझे ममं एवं वदह–'इमे य ते जाया! अज्जग-पज्जग० जाव पवइहिसि एवं खलु अम्म ! ताओ ! हिरण्णे य सुवण्णे य जाव सावएज्जे अग्गिसाहिए चोरसाहिए रायसाहिए मच्चुसाहिए दाइयसाहिए अग्गिसामन्ने जाव दाइयसामन्ते अधुवे अणितिए असासए पुटिव वा पच्छा वा अवस्सविप्पजहियब्वे भविस्सइ, से केस णं जाणइ० तं चेव जाव पव्व इत्तए। 42] इस पर क्षत्रियकुमार जमालि ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा-हे माता-पिता ! आपने जो यह कहा कि तेरे पितामह, प्रपितामह आदि से प्राप्त द्रव्य के दान, भोग आदि के पश्चात् यावत् प्रवज्या ग्रहण करना आदि, किन्तु हे माता-पिता ! यह हिरण्य, सुवर्ण यावत् सारभूत द्रव्य अग्निसाधारण, चोर-साधारण, राज-साधारण, मृत्यु-साधारण, एवं दायाद-साधारण (अधीन) है, तथा अग्नि-सामान्य यावत् दायाद-सामान्य (अधीन) है। यह (धन) अध्र व है, अनित्य है और प्रशाश्वत है / इसे पहले या पीछे एक दिन अवश्य छोड़ना पड़ेगा / अतः कौन जानता है कि कौन पहले जाएगा और कौन पीछे जाएगा? इत्यादि पूर्ववत् कथन जानना चाहिए; यावत् आपकी आज्ञा प्राप्त हो जाए तो मेरी दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा है। विवेचन- माता-पिता द्वारा द्रव्य के वान भोगादि का प्रलोभन और जमालि द्वारा धन की पराधीनता और अनित्यता का कथन-~-प्रस्तुत ४१-४२वे सूत्र में माता-पिता द्वारा प्रचुर धन के उपयोग का प्रलोभन दिया गया है, जबकि जमालि ने धन के प्रति वैराग्यभाव प्रदर्शित किया है।' कठिन शब्दों का भावार्थ-अज्जय-आर्य-पितामह, पज्जय प्रार्य प्रपितामह, पिउपज्जय-पिता के प्रपितामह / दूसे-~-दूष्य बहुमूल्य वस्त्र / संतसारसाधएज्जे-स्वायत्त विद्यमान सारभूत स्वापतेय-धन 1 आसत्तमाओ कुलवंसाओ-सात कुलवंशों (पीढ़ी) तक / अलाहि-पर्याप्त / पकामं प्रचुर / परिभाएउ -विभाजित करने के लिए / अग्गिसाहिए-अग्नि द्वारा साधारण या साध्य नष्ट हो जाने वाला / दाइय = वन्धु आदि भागीदार / सामन्ने सामान्य साधारण / 43. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्म-तानो जाहे नो संचाएंति विसयाणुलोमाहि बहि प्राघवणाहि य पग्णवणाहि य सन्नवणाहि य विष्णवणाहि य आवित्तए वा पण्णवित्तए वा सन्नवित्तए वा विष्णवित्तए वा ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभयुब्वेवणकरीहि पण्णवाहि पण्णवेमाणा एवं वयासी--एवं खलु जाया ! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवले जहा आवस्सए जाव सम्वदुक्खाणमंतं करेंति, अहीव एगंतदिट्ठीए, खुरो इव एगंतधाराए, लोहमया जवा चावेयव्वा, वाल्याकवले इव निरस्साए, गंगा वा महानदी पडिसोयगमणयाए, महासमुद्दे वा भुजाहिं दुत्तरे, तिक्खं कमियग्वं, गरुयं 1. वियापण्णत्तिसुत्तं (मू. पा. टिप्पण) भा. 1, पृ. 463 2. भगवतो अ. वृत्ति, पत्र 470 3. आवश्यकसूत्रगत पाठ-"सल्लगसणे "सिद्धिमग्गे "मूत्तिमम्गेनिज्जाणमम्गे"निमाणमग्गे "अवितहे .."अविसंधि सम्बदुक्खप्पहीणमागे एत्यं ठिया जीवा सिज्झंति, बुझंति, मुच्चंति, परिनिस्वायंति।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org