________________ 534] [व्याख्याप्रजाप्तिसूत्र लंबेयध्वं, असिधारगं वतं चरियन्वं, नो खलु कप्पइ जाया ! समणाणं निग्गंथाणं आहाकम्मिए इ वा, उद्देसिए इ वा, मिस्सजाए इवा, अज्झोयरए इ वा, पूइए इ वा, कीए इवा, पामिच्चे इ वा, अच्छेज्जे इवा, अणिसट्टे इवा, अभिहडे इ वा, कतारभत्ते इ वा, दुभिक्खभत्ते इ वा, गिलाणभत्ते इ वा, वलियाभत्ते इ वा, पाहुणगभत्ते इ वा, सेज्जायरपिडे इ वा, रायपिडे इ वा, मूलभोयणे इ वा, कंदभोयणे इ वा, फलभोयणे इ वा, बीयभोयणे इ वा, हरियभोयणे इ वा, भुत्तए वा. पायए वा / तुमं सि च णं जाया ! सुहसमुयिते णो चेव णं दुहसमुयिते, नालं सीयं, नालं उगह, नालं खुहा, नालं पिवासा, नालं चोरा, नालं वाला, नालं दंसा, नालं मसगा, नालं बाइय-पित्तिय-सेंभिय-सन्निवाइए विविहे रोगायके परीसहोवसग्गे उदिण्णे अहियासेत्तए / तं नो खल जाया! अम्हे इच्छामो तजभ खणमवि विप्पयोग, तं अच्छाहि ताब जाया ! जाव ताव अम्हे जीवामो, तो पच्छा अम्हेंहिं जाव पव्वइहिसि / 43] जब क्षत्रियकुमार जमालि को उसके माता-पिता विषय के अनुकूल बहुत-सी उक्तियों, प्रज्ञप्तियों, संज्ञप्तियों और विज्ञप्तियों द्वारा कहने, बतलाने और समझाने-बुझाने में समर्थ नहीं हुए, तब विषय के प्रतिकूल तथा संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पन्न करने वाली उक्तियों से इस प्रकार कहने लगे हे पत्र ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन सत्य, अनुत्तर, (अद्वितीय, परिपूर्ण न्याययुक्त, संशुद्ध, शल्य को काटने वाला, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, निर्याणमार्ग और निर्वाणमार्गरूप है। यह अवितथ (असत्यरहित, असंदिग्ध) आदि अावश्यक के अनुसार यावत् (सर्वदु:खों का अन्त करने वाला है / इसमें तत्पर जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होते हैं, निर्वाण प्राप्त करते हैं एवं समस्त दुःखों का अन्त करते हैं / परन्तु यह (निर्गन्थधर्म) सर्प की तरह एकान्त (चारित्र पालन के प्रति निश्चय) दृष्टि वाला है, छुरे था खड्ग आदि तीक्ष्ण शस्त्र की तरह एकान्त (तीक्ष्ण) धार वाला है। यह लोहे के चने चबाने के समान दुष्कर है। वालु (रेत) के कोर (ग्रास) की तरह स्वादरहित (नीरस) है / गंगा आदि महानदी के प्रतिस्रोत (प्रवाह के सम्मुख) गमन के समान अथवा भुजाओं से महासमुद्र तैरने के समान पालन करने में अतीव कठिन है। (निग्नन्थधर्म पालन करना) तीक्ष्ण (तलवार की तीखी) धार पर चलना है ; महाशिला को उठाने के समान गुरुतर भार उठाना है / तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने के समान व्रत का आचरण करना (दुष्कर) है। हे पूत्र ! निर्ग्रन्थ श्रमणों के लिए ये बातें कल्पनीय नहीं हैं। यथा--(१) आधार्मिक, (2) प्रौदेशिक, (3) मिश्रजात, (4) अध्यवपूरक, (5) पूतिक (पूतिकर्म), (6) क्रीत, (7) प्रामित्य, (8) अछेद्य, (6) अनिसृष्ट, (10) अभ्याहृत, (11) कान्तारभक्त, (12) दुभिक्षभक्त, (१३)ग्लानभक्त, (14) वर्दलिकाभक्त, (15) प्राघूर्णकभक्त, (16) शय्यातरपिण्ड और (17) राजपिण्ड, (इन दोषों से युक्त आहार साधु को लेना कल्पनीय नहीं है।) इसी प्रकार मूल, कन्द, फल, बीज और हरित-हरी वनस्पति का भोजन करना या पीना भी उसके लिए अकल्पनीय है 1 हे पुत्र ! तू सुख में पला, सुख भोगने योग्य है, दुःख सहन करने योग्य नहीं है। तू (अभी तक) शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा को तथा चोर, व्याल (सर्प आदि हिंस्र प्राणियों), डांस, मच्छरों के उपद्रव को एवं वात, पित्त, कफ एवं सन्निपात सम्बन्धी अनेक रोगों के आतंक को और उदय में पाए हुए परीषहों एवं उपसर्गों को सहन करने में समर्थ नहीं है / हे पुत्र ! हम तो क्षणभर भी तेरा वियोग सहन करना नहीं चाहते / अतः पूत्र ! जब तक हम जीवित हैं, तब तक त गहस्थवास में रह / उसके बाद हमारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org