________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [535 कालगत हो जाने पर, यावत् प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना / विवेचन-माता-पिता द्वारा निग्रन्थधर्माचरण को दुष्करता का प्रतिपादन-क्षत्रियकुमार जमालि को जब उसके माता-पिता विविध युक्तियों आदि द्वारा समझा नहीं सके, तब निरुपाय होकर वे निर्ग्रन्थ-प्रवचन (धर्म) की भयंकरता, दुष्करता, दुश्चरणीयता आदि का प्रतिपादन करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में यही वर्णन है / ' कठिन शब्दों का भावार्थ-नो संचाएंति-समर्थ नहीं हुए। विसयाणुलोमाहि-शब्दादि विषयों के अनुकूल / आघवणाहि --सामान्य उक्तियों से, पण्णवणाहि-प्रज्ञप्तियों विशेष उक्तियों से, सन्नवणाहि—संज्ञप्तियों-. विशेष रूप से समझाने-बुभाने से, विण्णवणाहि-विज्ञप्तियों से प्रेमपूर्वक अनुरोध करने से / संजमभयुब्वेवणकरोहि-संयम के प्रति भय और उद्वेग पैदा करने वाली / अहीव एगंतदिट्ठीए-जैसे सर्प की एक ही (आमिषग्रहण की) ओर दृष्टि रहती है, वैसे ही निर्गन्थप्रवचन में एकमात्र चारित्रपालन के प्रति एकान्तदृष्टि होती है। तिक्खं कमियब्वं-खड्गादि तीक्ष्णधारा पर चलना / गरुयं लंबेयन्वं-महाशिलावत् गुरुतर (महाव्रत) भार उठाना / असिधारगं वतं चरियव्वं तलवार की धार पर चलने के समान व्रताचरण करना होता है। __ अाधामिक प्रादि का भावार्थ--प्राधाकर्मिक-किसी खास साधु के निमित्त सचित्त वस्तु को अचित्त करना या अचित्त को पकाना / औद्देशिक-सामान्यतया याचकों और साधुओं के उद्देश्य से आहारादि तैयार करना / मिश्रजात-अपने और साधुनों के लिए एक साथ पकाया हुअा अाहार। अध्यवपूरक-साधुओं का आगमन सुन कर अपने बनते हुए भोजन में और मिला देना / पूतिकर्म-शुद्ध आहार में प्राधाकर्मादि का अंश मिल जाना / क्रोत-साधू के लिए खरीदा हुअा आहार / प्रामित्य. साधु के लिए उधार लिया हुया आहारादि / पाछेद्य-किसी से जबरन छीन कर साधु को आहारादि देना / अनिःसष्ट किसी वस्तु के एक से अधिक स्वामी होने पर सबकी इच्छा के बिना देना। अभ्याहृत-साधु के सामने लाकर आहारादि देना / कान्तारभक्त-वन में रहे हुए भिखारी आदि के लिए तैयार किया हुआ पाहारादि / दुर्भिक्षभक्त दुष्काल पीड़ित लोगों को देने के लिए तैयार किया हुअा आहारादि / ग्लानभक्त-रोगियों के लिए तैयार किया हुअा आहारादि / वादलिकाभक्त दुर्दिन या वर्षा के समय भिखारियों के लिए तैयार किया हा आहारादि / प्राधर्णकभक्त पाहनों के लिए बनाया हुया आहारादि / शय्यातरपिण्ड---साधुअों को मकान देने वाले के यहाँ का आहार लेना / राजपिण्ड---राजपिण्ड--राजा के लिए बने हुए आहारादि में से देना / 'सुहसमुयिते' आदि पदों के अर्थ----सुहसमुयिते--सुख में संवद्धित-पला हुअा अथवा सुख के योग्य (समुचित) / वाला-व्याल (सर्प) आदि हिंस्र जन्तुओं को / सेभिय-श्लेष्म सम्बन्धी / सन्निवाइए—सन्निपातजन्य / अहियासेत्तए--- सहन करने में / उदिण्ण-उदय में आने पर / 44. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं क्यासी—तहा विणं तं अम्म ! ताओ! जं णं तुम्भे ममं एवं बदह-एवं खलु जाया! निग्गथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवले तं चेव 1. विथापण्णलिसुत्त [मू. पा. टि.भा 1, पृ. 463 2. भगवती. अ. बत्ति, पत्र 471 3. भगवती. अ. वृत्ति. पत्र 471 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org