SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 530] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समान है, सड़ना, पड़ना और नष्ट होना, इसका स्वभाव है / इस शरीर को पहले या पीछे अवश्य छोड़ना पडेगा; तब कौन जानता है कि पहले कौन जाएगा और पीछे कौन? इत्यादि सारा वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत्-इसलिए मैं चाहता हूँ कि आपकी अाशा प्राप्त होने पर मैं प्रव्रज्या ग्रहण कर लूं। विवेचन-जमालि द्वारा शरीर की अस्थिरता, दुःख एवं रोगादि की प्रचुरता का निरूपणप्रस्तुत 38 वें सूत्र में जमालि द्वारा शारीर की अनित्यता, दुःख, व्याधि, रोग इत्यादि से सदैव ग्रस्तता ग्रादि का वर्णन करके पुन: दीक्षा को प्राज्ञा-प्रदान करने के लिए माता-पिता से निवेदन है।' कठिन शब्दों का भावार्थ-दुक्खाययणं-दु:खायतन-दुःखों का स्थान / विविवाहि-सयसन्निकेयं सैकड़ों विविध व्याधियों का निकेतन = घर / अद्विय-कट्टियं-अस्थिरूपी काष्ठ पर उत्थित -खड़ा किया हुआ है / छिरा-हारू-जाल-प्रोणद्ध-संपिगद्ध-शिरात्रों-नाड़ियों के जाल से वेष्टित और अच्छी तरह ढंका हुआ / मट्टियभंडं व दुब्बलं-मिट्टी के बर्तन की तरह कमजोर (टूटने वाला) है / असुइसंकिलिट्ठ--अशुचि (गंदगी) से संक्लिष्ट (दूषित या व्याप्त) है / प्रणिद्वविय-सवकाल-संठप्पयं-- अनस्थापित (टिकाऊ न) होने से सदा टिकाए रखना पड़ता है। जराकुणिम-जज्जरघर---जीर्ण शव और जीर्ण घर के समान / ' 39. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं वयासो-इमानो य ते जाया ! विपुलकुलबालियानो कलाकुसलसम्धकाललालियसुहोचियाश्रो मद्दवगुणजुत्तनिउणविणओवयारपंडियवियक्खणाम्रो मंजुलमियमहरभणियविहसियविप्पेक्खियगतिविलासचिट्ठियविसारदाओ अविकलकुलसोलसालिणीप्रो विसुद्धकुलवंससंताणतंतुवद्धणपगब्भवयभाविणीयो मणाणुकूलहियइच्छियानो अट्ठ तुज्झ गुणवल्लभाओ उत्तमानो निच्चं भावाणुरत्तसव्वंगसुदरोश्रो भारियाओ, तं भुजाहि ताव जाया ! एताहिं सद्धि विउले माणुस्सए कामभोगे, तनो पच्छा भुत्तभोगी विसयविगयवोच्छिन्नकोउहल्ले अम्हेहि कालगएहिं जाव पव्वइहिसि / [39] तब क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता ने उससे इस प्रकार कहा-पुत्र! ये तेरी गुणवल्लभा, उत्तम, तुझमें नित्य भावानुरक्त, सर्वांगसुन्दरी आठ पत्नियाँ हैं, जो विशाल कुल में उत्पन्न बालिकाएँ (नवयौवनाएँ) हैं, कलाकुशल हैं, सदैव लालित (लाड़-प्यार में रही हुई) और सुखभोग के योग्य हैं। ये मार्दवगण से युक्त. निपुण, विनय-व्यवहार (उपचार) में कुशल एवं विचक्षण हैं। ये मंजुल, परिमित और मधुर भाषिणी हैं / ये हास्य, विप्रेक्षित (कटाक्षपात), गति, विलास और चेष्टानों में विशारद हैं। निर्दोष कुल और शील से सुशोभित हैं, विशुद्ध कुलरूप वंशतन्तु की वृद्धि करने में समर्थ एवं पूर्णयौवन वाली हैं / ये मनोनुकल एवं हृदय को इष्ट हैं। अतः हे पुत्र! तू इनके साथ मनुष्यसम्बन्धी विपुल कामभोगों का उपभोग कर और बाद में जब तू भुक्तभोगी हो जाए 1. वियाहपण्णत्ति सुत्तं (म. पा. टिप्पण) भा. 1, पृ.४६१ 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 469 3. अधिक पाठ—“सरित्तयाओ सरिव्वयाओ सरिसलावण्णरूवजोठवणगुणोवयेयाओ सरिसएहितो कुलेहितो आणिए ल्लियाओ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy