________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [37] यह बात सुन कर क्षत्रियकुमार जमालि से उसके माता-पिता ने इस प्रकार कहाहे पुत्र ! तुम्हारा यह शरीर विशिष्ट रूप, लक्षणों, व्यंजनों (मस, तिल आदि चिह्नों) एवं गुणों से युक्त है, उत्तम बल, वीर्य और सत्त्व से सम्पन्न है, विज्ञान में विचक्षण है, सौभाग्य-गुण से उन्नत है, कुलीन (अभिजात) है, महान् समर्थ (क्षमतायुक्त) है, विविध व्याधियों और रोगों से रहित है, निरुपहत, उदात्त, मनोहर और पांचों इन्द्रियों की पटुता से युक्त है तथा प्रथम (उत्कृष्ट) यौवन अवस्था में है, इत्यादि अनेक उत्तम गुणों से युक्त है / इसलिए, हे पुत्र ! जब तक तेरे शरीर में रूप, सौभाग्य और यौवन आदि उत्तम गुण हैं, तब तक तू इनका अनुभव (उपभोग) कर / इन सब का अनुभव करने के पश्चात् हमारे कालधर्म प्राप्त होने पर जब तेरी उम्र परिपक्व हो जाए और (पुत्रपौत्रादि से) कलवंश की वद्धि का कार्य हो जाए तब (गहस्थ-जीवन से) निरपेक्ष हो कर श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्डित हो कर अगारवास छोड़ कर अनगारधर्म में प्रवजित होना। विवेचन-माता-पिता के द्वारा जमालि को गहस्थाश्रम में रखने का पुनः उपाय-प्रस्तुत सूत्र में जमालि को यह समझाया गया है कि इतने उत्कृष्ट गुणों से युक्त शरीर और यौवन आदि का उपयोग करके बुढ़ापे में दीक्षित होना / ' ___ कठिन शब्दों का भावार्थ-पविसिगुरूवं-विशिष्ट रूप / अभिजाय-महक्खम-अभिजात (कुलीन) है और महती क्षमताओं से युक्त है / निरुवह्य-उदत्त-लट्ठ-पंचिदियपडु-निरुपहत, उदात्त, सुन्दर (लष्ट) एवं पंचेन्द्रिय-पटु है / पढमजोवणत्थं--उत्कृष्ट यौवन में स्थित है / अणुहोहि == अनुभव कर (उपभोग कर)। गियगसरीररूव-सोभग्ग-जोवण्णगुणे = अपने शरीर के रूप, सौभाग्य, यौवन प्रादि गुणों का। 38. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासो-तहा विणं तं अम्म ! तामो! जं गं तुम्भे ममं एवं वदह 'इमं च णं ते जाया ! सरीरगं० तं चेव जाव पन्वइहिसि एवं खलु अम्म ! तापो! माणुस्सगं सरीरं दुक्खाययणं विविहवाहिसयसनिकेतं अट्टियकढुट्टियं छिरा-हारजालोणद्ध-संपिणद्ध मट्टियभंडं व दुब्बलं असुइसंकिलिट्ठ अणिटुवियसन्चकालसंठप्पयं जराकुणिमजज्जरधरं व सड़ण-पडण-विद्धसणधम्म पुन्धि वा पच्छा वा अवस्स-विष्पजहियवं भविस्सइ, से केस णं जाणति अम्म ! तात्रों ! के पुटिव ? तं चेव जाव पव्वइत्तए / [38] तब क्षत्रियकुमार जमालि ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा-हे माता-पिता! अापने मुझे जो यह कहा कि पुत्र! तेरा यह शरीर उत्तम रूप आदि गुणों से युक्त है, इत्यादि, यावत् हमारे कालगत होने पर तू प्रबजित होना / (किन्तु) हे माता-पिता! यह मानव-शरीर दु:खों का घर (आयतन) है, अनेक प्रकार की सैकड़ों व्याधियों का निकेतन है, अस्थि-(हड्डी) रूप काष्ठ पर खड़ा हुअा है, नाड़ियों और स्नायुओं के जाल से वेष्टित है, मिट्टी के बर्तन के समान दुर्बल (नाजुक) है / अशुचि (गंदगी) से संक्लिष्ट (बुरी तरह दूषित) है, इसको टिकाये (संस्थापित) रखने के लिए सदैव इसकी संभाल (व्यवस्था) रखनी पड़ती है, यह सड़े हुए शव के समान और जीर्ण घर के 1. वियाहपण्णतिसुत्त (मु. पा. टि.) भा. 1, पृ. 461 2. भगवती. अ. वृत्ति., पत्र 469 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org