________________ 528 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पच्छा गमणयाए ? तं इच्छामि गं अम्म ! तारो! तुम्भेहि अन्भणुष्णाए समाणे समणस्स भगवनो महावीरस्स जाव पब्वइत्तए / [36] तब क्षत्रियकुमार जमालि ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा-हे माता-पिता ! अभी जो आपने कहा कि-हे पुत्र ! तुम हमारे इकलौते पुत्र हो, इण्ट, कान्त आदि हो, यावत् हमारे कालगत होने पर प्रवजित होना, इत्यादि; (उस विषय में मुझे यह कहना है कि) माताजी ! पिताजी ! यों तो यह मनुष्य-जीवन जन्म, जरा, मृत्यु, रोग तथा शारीरिक और मानसिक अनेक दुःखों की वेदना से और सैकड़ों व्यसनों (कप्टों) एवं उपद्रवों से ग्रस्त है / अध्रव; (चंचल) है, अनियत है, अशाश्वत है, सन्ध्याकालीन बादलों के रंग-सदृश क्षणिक है, जल-बुद्बुद के समान है. कुश की नोक पर रहे हुए जलबिन्दु के समान है, स्वप्नदर्शन के तुल्य है, विद्युतलता की चमक के समान चचल और अनित्य है। सड़ने, पड़ने, गलने और विध्वंस होने के स्वभाव वाला है। पहले या पीछे इसे अवश्य ही छोड़ना पड़ेगा / अतः हे माता-पिता ! यह कौन जानता है कि हममें से कौन पहले जाएगा (मरेगा) और कौन पीछे जाएगा? इसलिए हे माता-पिता ! मैं चाहता हूँ कि अापकी अनुज्ञा मिल जाए तो मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास मुडित होकर यावत् प्रव्रज्या अंगीकार कर लू। विवेचन--जमालि के वैराग्यसूचक उद्गार--प्रस्तुत में जमालि ने माता-पिता के समक्ष विविध उपमाओं द्वारा जीवन की क्षणभंगुरता एवं अनित्यता का सजीव चित्र खींचा है।' कठिन शब्दों का भावार्थ-अणेगजाईजरा-मरण-रोग-सारीर-माणस-पकाम-दुक्खयणवसण-सतोक्दवाभिभूए-अनेक जन्म, जरा, मृत्यु. रोग, शरीर एवं मन सम्बन्धी अत्यन्त दुखों की वेदना और सैकड़ों व्यसनों (कष्टों) एवं उपद्रवों से अभिभूत (ग्रस्त) है / संझम्भरागसरिस--संध्या. कालीन मेघों के रंग जैसा है / जलबुब्बुदसमाणे = जल के बुलबुलों के समान / सुविणगदंसणोक्मेस्वप्न-दर्शन के तुल्य / विजुलयाचंचले-विद्युत-लता की चमक के समान चंचल है / सडण-पडग-विद्धसणधम्मे--सड़ने, पड़ने, और विध्वंस होने के धर्म-स्वभाव वाला है। प्रवस्सविप्पजहियब्वे भविस्सइ–अवश्य ही छोड़ना पड़ेगा / ' 37. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं वयासी--इमं च ते जाया ! सरीरगं पविसिगुरूवं लक्खण वंजण-गुणोववेयं उत्तमबल-वीरिय-सत्तजुत्तं विणाणवियक्खणं ससोहग्गगुणसमुस्सियं अभिजायमहक्खमं विविहबाहिरोगरहियं निरुवहयउदत्तलटुचिदियपडु, पढमजोवणत्थं अणेगउत्तमगुणेहि जुत्तं, तं अणुहोहि ताव जाव जाया ! नियगसरीररूवसोहग्गजोवणगुणे, तओ पच्छा अणुभूयनियगसरीररूवसोभग्गजोवणगुणे अम्हेहि कालगहि समाहि परिणयवये वडियकुलवंसतंतुकज्जम्मि निरवयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं पम्वइहिसि / 1. वियाहपण्णत्तिसूतं (मू. पा. टिप्पण) भा. 1, पृ. 461 2. भगवती. अ. वृत्ति., पत्र 468 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org