SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [527 मनोज्ञ है, मनसुहाता, है, आधारभूत है विश्वासपात्र है, (इस कारण) तू सम्मत, अनुमत और वहुमत है। तु प्राभूषणों के पिटारे (करण्डक) के समान है, रत्नस्वरूप है, रत्नतुल्य है, जीवन या जीवितोत्सव के समान है, हृदय को आनन्द देने वाला है; उदुम्बर (गलर) के फूल के समान तेरा नाम-श्रवण भी दुर्लभ है, तो तेरा दर्शन दुर्लभ हो, इसमें कहना ही क्या ! इसलिए है पुत्र ! तेरा क्षण भर का वियोग भी हम नहीं चाहते / इसलिए जब तक हम जीवित रहें, तब तक तू घर में ही रह / उसके पश्चात् जब हम (दोनों) कालधर्म को प्राप्त (परलोकवासी) हो जाएँ, तेरी उम्र भी परिपक्व हो जाए, (और तब तक) कुलवंश की वृद्धि का कार्य हो जाए, तब (गृह-प्रयोजनों से) निरपेक्ष हो कर तू गृहवास का त्याग करके श्रमण भगवान् महावीर के पास मुण्डित होकर अनगारधर्म में प्रवजित होना / विवेचन-माता की मूच्र्छा दूर होने पर जमालि के प्रति उद्गार-प्रस्तुत सूत्र में यह वर्णन है कि दासियों ने माता की मूच्र्छा विविध उपचारों से दूर की / परिजनो ने सान्त्वना दी, किन्तु फिर भी मोह-ममतावश जमालि को समझाने लगी कि हमारे जीवित रहने तक तुम दीक्षा मत लो।' कठिन शब्दों का अर्थ-ससंभमोयत्तियाए--घबराहट के कारण छटपटाती हुई या गिरती हई / कंचभिगारमुहविणिग्मय-सीयलजल-विमलधारा-पसिच्चमाण-निव्वविय-गायलट्ठी–सोने के कलश के मुख से निकलती हुई शीतल एवं विमल जलधारा से सिंचन करने से देह (गात्रयष्टि) स्वस्थ हुई / उक्खेवग-तालियंट-बीयणगजणियवाएणं सफुसिएणं----उत्क्षेपक (बांस से निर्मित पखे) तथा ताड़ के पंखे से पानी के फुहारों से युक्त हवा करने से / अंतेउरपरिजणेणं आसासिया समाणी अन्तःपुर के परिजन से आश्वस्त की गई। कंदमाणी-चिल्लाती हुई। वेसासिए विश्वासपात्र / थेज्जे-स्थिरता के योग्य / सम्मए—अनेक कार्यों में सम्मति देने योग्य / अणुमए—कार्य के अनुरूप या कार्य में विधात आने के बाद सलाह देने योग्य / बहुमए-बहुत से कार्यों में मान्य या वहुमान्य / रयणं - रत्नरूप या (मनो) रंजक है / जीवियऊसविये--जीवित-उत्सवरूप अथवा जीवन के उच्छ्वास .(प्राण) रूप / अच्छाहि-रहो या ठहरो। परिणयवये-परिपक्व अवस्था होने पर ।वडियकुलवंसतन्तुकज्जम्मि-कुलवंशरूप तन्तु-पुत्रपौत्रादि से कुलवंश की वृद्धि का कार्य होने पर। णिरत्यक्खे-- गृहस्थकार्यों से निरपेक्ष होने पर। 36. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासी-तहा विणं तं अम्म ! ताप्रो ! ज णं तुम्भे मम एवं वदह 'तुमंसि गं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इठे कंते तं चेव जाव पन्वइहिसि', एवं खलु अम्म! तानो! माणुस्सए भवे अणेगजाइ-जरा-भरण-रोग-सारीर-माणसपकामदुक्खवेयण-बसण-सतोववाभिभूए अधुवे अणितिए प्रसासए संशभरागसरिसे जलबुब्बुदसमाणे कुसग्गजलबिदुसन्निभे सुविणगदंसणोवमे विज्जुलयाचंचले अणिच्चे सडण-पडण-विद्ध सणधम्मे पुटिव वा पच्छा वा अवस्सविप्पजहियचे भविस्सइ, से केस गं जाणइ अम्म ! तायो ! के पुब्बि गमणयाए ? के -. --.-...-...--. . ..... - ..... - 1. वियापण्यत्ति. (मू. पा. टि.) भा. 1, पृ. 460 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 468 3. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 468 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy