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________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१०] [59 विवेचन –लोक को विशालता का रूपक द्वारा निरूपण-प्रस्तुत 26 वें सूत्र में भगवान् ने लोक की विशालता बताने के लिए असत्कल्पना से रूपक प्रस्तुत किया है। शंका-समाधान- यह शंका हो सकती है कि मेरुपर्वत की चूलिका से चारों दिशाओं में लोक का विस्तार प्राधा-प्राधा रज्जुप्रमाण है / ऊध्वंलोक में किंचित् न्यून सात रज्जु और अधोलोक में सात रज्जु से कुछ अधिक है। ऐसी स्थिति में वे सभी देव छहों दिशाओं में एक समान त्वरित गति से जाते हैं, तब फिर छहों दिशाओं में गतक्षेत्र से अगतक्षेत्र असंख्यातवें भाग तथा अगत से गतक्षेत्र असंख्यात गूणा कैसे बतलाया गया है, क्योंकि चारों दिशाओं की अपेक्षा ऊर्वदिशा में क्षेत्रपरिमाण की विषमता है? इस शंका का समाधान यह है कि यहाँ घनकृत (वर्गीकृत) लोक की विवक्षा से यह रूपक कल्पित किया गया है / इसलिए कोई आपत्ति नहीं / मेरुपर्वत को मध्य में रखने से साढ़े तीन-साढ़े तीन रज्जु रह जाता है। प्र.] पूर्वोक्त तीव दिव्य देवगति से गमन करते हुए वे देव जब उतने लम्बे समय तक में लोक का छोर नहीं प्राप्त कर सकते, तब तीर्थकर भगवान् के जन्मकल्याणादि में ठेठ अच्युत देवलोक तक से देव यहाँ शीघ्र कसे पा सकते हैं, क्योंकि क्षेत्र बहुत लम्बा है और अवतरण-काल बहुत ही अल्प है ? उ.| इसका समाधान यह है कि तीर्थंकर भगवान् के जन्मकल्याणादि में देवों के आने की गति शीघ्रतम है / इस प्रकरण में बताई हुई गति मन्दतर है। अलोक की विशालता का निरूपण 27. अलोए णं भंते ! केमहालय पन्नते ? ___गोयमा ! अयं णं समयखेत्ते पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं जहा खंदए (स. 2 उ. 1 सु. 24 [3]) जाव परिक्खेवेणं / तेणं कालेणं तेणं समएणं दस देवा महिड्डीया तहेब जाव संपरिक्खित्ताणं चिट्ठज्जा, अहे णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ अट्ट बलिपिडे गहाय माणुसुत्तरपन्वयस्स चउतु वि दिसासु चउसु वि विदिसासु बहियाभिमुहीओ ठिच्चा बलिपिडे जमगसमग बहियाभिमुहीओ पविखवेज्जा। पभू णं गोयमा! तओ एगमेगे देवे ते अट्ठ बलिपिडे धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए / ते णं गोयमा! देवा ताए उक्किटाए जाव देवगईए लोगते ठिच्चा असम्भावपट्ठवणाए एगे देवे पुरत्याभिमुहे पयाए, एगे देवे दाणिपुरत्याभिमुहे पयाते, एवं जाव उत्तरपुरस्थाभिमुहे, एगे देवे उड्डाभिमुहे, एगे देवे अहोभिमुहे पयाए / तेणं कालेणं तेणं समएणं वाससयसहस्साउए दारए पयाए / तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पहीणा भवंति, नो चेव णं ते देवा अलोयंतं संपाउणंति / ' तं चेव जाव 'तेसि णं देवाणं कि गए बहुए, अगए बहुए ?' 'गोयमा ! नो गते बहुए, अगते बहुए, गयाओ से अगए अणंतगुणे, अगयाओ से गए अगंतभागे / अलोए णं गोयमा ! एमहालए पन्नत्ते / ' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 527 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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