________________ 60] [व्याख्याप्रप्तिसूत्र [27 प्र.] भगवन् ! अलोक कितना बड़ा कहा गया है ? [27 उ.] गौतम ! यह जो समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) है, वह 45 लाख योजन लम्बा-चौड़ा है, इत्यादि सब (श. 2, उ. 1, सू. 24-3 वणित) स्कन्दक प्रकरण के अनुसार जानना चाहिए; यावत् वह (पूर्वोक्तवत्) परिधियुक्त है। (अलोक की विशालता बताने के लिए मान लो-) किसी काल और किसी समय में, दस महद्धिक देव. इस मनुष्यलोक को चारों ओर से घर कर खड़े हों। उनके नीचे आठ दिशाकुमारियाँ, आठ बलिपिण्ड लेकर मानुषोत्तर पर्वत की चारों दिशाओं और चारों विदिशाओं में बाह्याभिमुख होकर खड़ी रहें / तत्पश्चात् वे उन आठों बलिपिण्डों को एक साथ मानुषोत्तर पर्वत के बाहर की ओर फैकें / तब उन खड़े हुए देवों में से प्रत्येक देव उन बलिपिण्डों को धरती पर पहुँचने से पूर्व शीघ्र ही ग्रहण करने में समर्थ हों, ऐसी शीघ्र, उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति द्वारा वे दसों देव, लोक के अन्त में खड़े रह कर उनमें से एक देव पूर्व दिशा की ओर जाए, एक देव दक्षिणपूर्व की ओर जाए, इसी प्रकार यावत् एक देव उत्तरपूर्व की ओर जाए, एक देव ऊर्ध्व दिशा की ओर जाए और एक देव अधोदिशा में जाए (यद्यपि यह असद्भूतार्थ कल्पना है, जो संभव नहीं)। उस काल और उसी समय में एक गहपति के घर में एक बालक का जन्म हया हो, जो कि एक लाख वर्ष की आयु वाला हो / तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता का देहावसान हुआ, इतने समय में भी देव अलोक का अन्त नहीं प्राप्त कर सके / तत्पश्चात उस बालक का भी देहान्त हो गया। उसकी अस्थि और मज्जा भी विनष्ट हो गई और उसकी सात पीढ़ियों के बाद वह कुल-वंश भी नष्ट हो गया तथा उसके नाम-गोत्र ए। इतने लम्बे समय तक चलते रहने पर भी वे देव अलोक के अन्त को प्राप्त नहीं कर सकते / [प्र.] भगवन् ! उन देवों का गतक्षेत्र अधिक है, या अगतक्षेत्र अधिक है ? [उ.} गौतम ! वहाँ गतक्षेत्र बहुत नहीं, अगतक्षेत्र ही बहत है / गतक्षेत्र से अगतक्षेत्र अनन्तगुणा है / अगतक्षेत्र से गतक्षेत्र अनन्तवें भाग है / हे गौतम ! अलोक इतना बड़ा है। विवेचन - अलोक की विशालता का माप-प्रस्तुत 27 वे सूत्र में अलोक की विशालता का माप एक रूपक द्वारा प्रस्तुत किया गया है। आकाशप्रदेश पर परस्पर-सम्बद्ध जीवों का निराबाध अवस्थान 28. [1] लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे जे एगिदियपएसा जाव पंचिदियपदेसा अणिदियपएसा अन्नमन्नबद्धा जाव अन्नमनघडत्ताए चिठ्ठति, अत्थि णं भंते ! अन्नमन्नस्स किचि आवाहं वा वावाहं वा उप्पाएंति, छविच्छेदं वा करेंति ? णो इणठे समठे। [28-1 प्र.] भगवन् ! लोक के एक प्राकाशप्रदेश पर एकेन्द्रिय जीवों के जो प्रदेश हैं, यावत् पंचेन्द्रिय जीवों के और अनिन्द्रिय जीवों के जो प्रदेश है, क्या वे सभी एक दूसरे के साथ बद्ध, हैं, अन्योन्य स्पष्ट हैं यावत् परस्पर-सम्बद्ध हैं ? भगवन् ! क्या वे परस्पर एक दूसरे को पाबाधा (पीड़ा) और व्याबाधा (विशेष पीड़ा) उत्पन्न करते हैं ? या क्या वे उनके अवयवों का छेदन करते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org