________________ 674] [भ्याल्याप्राप्तिसूब 72. अपज्जत्तसहमपुढविकाइया णं भंते ! कति कम्मपगडीओ एंति ? गोयमा! चोद्दस कम्मपगडोप्रो एंति, तं जहा-नाणावरणिज्जं. जहा एगिदियसएस (स० 33-1-1 सु० 15) जाब पुरिसवेयवज्ज। [72 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं। [72 उ.] गौतम ! वे चौदह कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं / यथा--ज्ञानावरणीय आदि / शेष सब वर्णन एकेन्द्रियशतक के अनुसार यावत् पुरुषवेदवध्य कर्मप्रकृति-पर्यन्त कहना चाहिए / 73. एवं जाव बादरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं / [73] इसी प्रकार यावत् पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक-पर्यन्त जानना चाहिए / 74. एगिदिया णं भंते ! को उवधज्जति ? कि नेरइएहितो. ? जहा वक्कंतीए पुढविकाइयाणं उववातो। [74 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [74 उ.] गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद में उक्त पृथ्वीकायिक जीव के / उपपात के समान इनका भी उपपात कहना चाहिए। 75. एगिदियाणं भंते ! कति समुग्धाया पन्नत्ता? गोयमा ! चत्तारि समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा–वेयणासमुग्घाए जाव वेउब्वियसमुग्घाए / [75 प्र. भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवों के कितने समुद्घात कहे हैं ? [75 उ.] गौतम ! उनके चार समुद्घात कहे हैं। यथा-वेदनासमुद्धात यावत् वैक्रियसमुद्घात / 76. [1] एगिदिया णं भंते ! कि तुल्लद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, तुल्ल द्वितीया बेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, वेमायद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, वेमायद्वितीया बेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति ? गोयमा ! अत्थेगइया तुल्ल द्वितीया तुल्ल विसेसाहियं कम्म पकाति, अत्थेगइया तुल्लाद्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, प्रत्थेगइया वेमायद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, अत्थेगइया वेमायद्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति / [76-1 प्र.] भगवन् ! 1. तुल्य (समान) स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव तुल्य और विशेषाधिककर्म का बन्ध करते हैं ? 2. अथवा तुल्य स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव भिन्न-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं ? 3. अथवा भिन्न-भिन्न स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव तुल्य-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं ? या 4. भिन्न-भिन्न स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव भिन्न-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं ? [76-1 उ.] गौतम ! तुल्य स्थिति वाले कई एकेन्द्रिय जीव तुल्य और विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं, तुल्य स्थिति वाले कतिपय एकेन्द्रिय जीव भिन्न-भिन्न विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं, कई भिन्न-भिन्न स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव तुल्य-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं और कई भिन्न-भिन्न स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव भिन्न-भिन्न विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org