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________________ 316] [ व्याख्याप्राप्तिसूत्र किसी का भी आवागमन न हो, न ही दृष्टिपात हो), (2) अनुपधातक (जहाँ संयम की, किसी जीव की एवं आत्मा की विराधना न हो), (3) सम (भूमि ऊबड़खाबड़ न होकर समतल हो), (4) अशुषिर (पोली या थोथी भूमि न हो), (5) अचिरकालकृत (जो भूमि थोड़े ही समय पूर्व दाह आदि से अचित्त हुई हो), (6) विस्तीर्ण (जो भूमि कम से कम एक हाथ लम्बी-चौड़ी हो), (7) दूरावगाढ (जहां कम से कम चार अंगुल नीचे तक भूमि अचित्त हो), (8) अनासन्न (जहाँ गाँव या बागबीचा आदि निकट में न हो) (6) बिलजित (जहाँ चूहे आदि के बिल न हों), (10) स-प्राण-बीजरहित (जहाँ द्वीन्द्रियादि सप्राणी तथा गेहूं आदि के बीज न हों)। इन दस विशेषणों से युक्त स्थण्डिल भूमि में साधु उच्चार-प्रस्रवण (मल-मूत्र) आदि वस्तु परठे।' विशिष्ट शन्दों को व्याख्या-पिंडवायपडिवाए'—पिण्ड = भोजन का पात–निपतन मेरे पात्र में हो, इसकी प्रतिज्ञा = बुद्धि से। 'उनिमंतेज्ज' = भिक्षो! ये दो पिण्ड ग्रहण कीजिए, इस प्रकार कहे। नो अन्नेसि दावए - दूसरों को न दे या दिलाये, क्योंकि गृहस्थ ने वह पिण्ड आदि विवक्षित स्थविर को देने के लिए दिया है, अन्य किसी को देने के लिए नहीं। अन्य साधु को देने या स्वयं उसका उपभोग करने से अदत्तादानदोष लगने की सम्भावना है। अकृत्यसेवी, किन्तु आराधनातत्पर निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी की आराधकता की विभिन्न पहलुओं से सयुक्तिक प्ररूपरणा --- 7. [1] निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविठेणं प्रनयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवति-इहेब ताव अहं एयरस ठाणस्स पालोएमि पडिक्कमामि निदामि गरिहामि विउट्टामि विसोहेमि अकरणयाए अन्भुठेमि, प्रहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जामि, तो पच्छा थेराणं अंतियं पालोएस्सामि जाव तवोकम्म पडिज्जिस्सामि / से य संपदिए, प्रसंपत्ते, थेरा य अमुहा सिया, से णं भंते ! कि धाराहए विराहए ? गोयमा! पाराहए, नो विराहए। [7-1 प्र.] गृहस्थ के घर पाहार ग्रहण करने की बुद्धि से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ द्वारा किसी अकृत्य (मूलगुण में दोषरूप किसी अकार्य) स्थान (बात) का प्रतिसेवन हो गया हो और तत्क्षण उसके मन में ऐसा विचार हो कि प्रथम मैं यहीं इस अकृत्यस्थान की आलोचना, प्रतिक्रमण, (प्रात्म-) निन्दा (पश्चात्ताप) और गर्दी करू; (उसके अनुबन्ध का) छेदन करू, इस (पाप-दोष से) विशुद्ध बन, 1. (क) अणावायमसंलोए, अणावाए चेव होइ संलोए / आवायमसंलोए, आवाए चेव होई संलोए // 1 // अणावायमसंलोए 1 परस्सऽणुवघाइए 2 / समे 3 असिरे 4 यावि अचिरकालकर्याम्म 5 य // 2 // वित्थिपणे 6 दूरमोगाढे 7 पासण्णे 8 बिलवज्जिए 9 / तसपाण-बीयरहिए, 10 उच्चाराईणि बोसिरे // 3 // --उत्तराध्ययन सूत्र, अ. 24 (ख) भगवती. अ वृत्ति, पत्रांक 375 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 374-375 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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