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________________ अष्टम शतक : उद्देशक-६ ] [315 के लिए कोई गृहस्थ उपनिमंत्रण दे--'पायुष्मन् श्रमण ! इनमें से एक पिण्ड आप स्वयं खाना और शेष नौ पिण्ड स्थविरों को देना;' इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् जानना; यावत् परिष्ठापन करे (परठ दे) / 5. [1] निग्गंथं च णं गाहावइ जाव केइ दोहि पडिग्गहेहि उवनिमंतेज्जा---एगं पाउसो! अप्पणा परिभुजाहि, एग थेराणं दलयाहि, से य तं पडिग्गाहेज्जा, तहेव जाव तं नो अप्पणा परिभुजेउजा, नो अन्नेसि दावए / सेसं तं चेव जाव परिट्ठावेयवे सिया। _[5-1] निग्रन्थ यावत् गृहपति-कुल में प्रवेश करे और कोई गृहस्थ उसे दो पात्र (पतद्ग्रह) ग्रहण करने (बहरने) के लिए उपनिमंत्रण करे--'अायुष्मन् श्रमण ! (इन दोनों में से) एक पात्र का आप स्वयं उपयोग करना और दूसरा पात्र स्थविरों को दे देना।' इस पर वह निग्रन्थ उन दोनों पात्रों को ग्रहण कर ले / शेष सारा वर्णन उसी प्रकार कहना चाहिए, यावत् उस पात्र का न तो स्वयं उपयोग करे, और न दूसरे साधुनों को दे; शेष सारा वर्णन पूर्ववत् समझना, यावत् उसे परठ दे / [2] एवं जाव दसहि पडिग्गहेहि / [5-2] इसी प्रकार तीन, चार यावत् दस पात्र तक का कथन पूर्वोक्त पिण्ड के समान कहना चाहिए। 6. एवं जहा पडिग्गहवत्तव्वया भणिया एवं गोच्छग-रयहरण-चोलपट्टग-कंबल-लट्ठी-संथारगवत्तवया य भाणियव्वा जाव दसहि संथारएहि उनिमंतेज्जा जाव परिहावेयध्वे सिया। [6] जिस प्रकार पात्र के सम्बन्ध में वक्तव्यता कही, उसी प्रकार गुच्छक (पूजनी), रजोहरण, चोलपट्टक, कम्बल, लाठी, (दण्ड) और संस्तारक (बिछौना या बिछाने का लम्बा आसन-संथारिया) की वक्तव्यता कहनी चाहिए, यावत् दस संस्तारक ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे, यावत् परठ दे, (यहाँ तक सारा पाठ कहना चाहिए)। विवेचन-गृहस्थ द्वारा दिये गए पिण्ड, पात्र प्रादि की उपमोग-मर्यादा-प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सूत्रों में गृहस्थ द्वारा साधु को दिये गए पिण्ड, पात्र प्रादि के उपभोग करने की विधि बताई गई है। निष्कर्ष-गृहस्थ ने जो पिण्ड, पात्र, गुच्छक, रजोहरण आदि जितनी संख्या में जिसको उपभोग करने के लिए दिए हैं, उसे ग्रहण करने वाला साधु उसी प्रकार स्थविरों को वितरित कर दे, किन्तु यदि वे स्थविर ढूढ़ने पर भी न मिले तो उस वस्तु का उपयोग न स्वयं करे और न ही दूसरे साधु को दे, अपितु उसे विधिपूर्वक परठ दे। परिष्ठापनविधि-किसी भी वस्तु को स्थण्डिल भूमि पर परिष्ठापन करने के लिए मूलपाठ में स्थण्डिल के 4 विशेषण दिये गए हैं--एकान्त, अनापात, अचित्त और बहुप्रासुक / तथा उस पर परिष्ठापनविधि मुख्यतया दो प्रकार से बताई है-प्रतिलेखन और प्रमार्जन / ' स्थण्डिल-प्रतिलेखन-विवेक-परिष्ठापन के लिए स्थण्डिल कैसा होना चाहिए? इसके लिए शास्त्र में 10 विशेषण बताए गए है—(१) प्रनापात-प्रसंलोक (जहाँ स्वपक्ष-परपक्ष वाले लोगों में से 1. वियाहपण्णत्तिगुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 361-362 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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