________________ 314] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र होता है। बिना ही कारण के यों ही अप्रासुक-अनेषणीय आहार साधु को देने वाले और लेने वाले दोनों का अहित है।' गृहस्थ द्वारा स्वयं या स्थविर के निमित्त कह कर दिये गए पिण्ड, पात्र आदि की उपभोग-मर्यादा-प्ररूपरणा 4. [1] निगथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठ केइ दोहि पिडेहि उवनिमंतेज्जा--एगं पाउसो! अप्पणा भुजाहि, एगं थेराणं वलयाहि, से य तं पिडं पडिग्गाहेज्जा, थेरा य से अणुगवेसियन्वा सिया, जत्थेव अणुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा तत्थेवाऽणुप्पदायब्वे सिया, नो चेव णं अणुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा तं नो अप्पणा भुजेज्जा, नो अन्नेसि दावए, एगते अणावाए अचित्ते बहुफासुए थंडिले पडिलेहेत्ता, पमज्जित्ता परिढावेतब्वे लिया। [4.1] गृहस्थ के घर में आहार ग्रहण करने को (बहरने) की बुद्धि से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को कोई गहस्थ दो पिण्ड (खाद्य पदार्थ) ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे—'आयूष्मन श्रमण ! इन दो पिण्डों (दो लड्ड, दो रोटी या दो अन्य खाद्य पदार्थों) में से एक पिण्ड पाप स्वयं खाना और दूसरा पिण्ड स्थविर मुनियों को देना / (इस पर) वह निर्ग्रन्थ श्रमण उन दोनों पिण्डों को ग्रहण कर ले और (स्थान पर आ कर) स्थविरों को गवेषणा करे / गवेषणा करने पर उन स्थविर मुनियों को जहाँ देखे, वहीं वह पिण्ड उन्हें दे दे। यदि गवेषणा करने पर भी स्थविरमुनि कहीं न दिखाई दें (मिलें) तो वह पिण्ड स्वयं न खाए और न ही दूसरे किसी श्रमण को दे, किन्तु एकान्त, अनापात (जहाँ आवागमन न हो), अचित्त या बहुप्रासुक स्थण्डिल भूमि का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके वहाँ (उस पिण्ड को) परिष्ठापन करे (परठ दे)। [2] निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिउवायपडियाए प्रणपविलू केति तिहि पिडेहि उवनिमंतेज्जा--एगं पाउसो ! प्रप्पणा भजाहि, दो थेराणं दलयाहि, से य ते पडिग्गाहेज्जा, थेरा य से अणुगवेसेयन्वा, सेसं तं चेव जाव परिद्वावेयवे सिया। [4-2] गृहस्थ के घर में ग्राहार ग्रहण करने के विचार से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को कोई गृहस्थ तीन पिण्ड ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे-'प्रायष्मन श्रमण ! (इन तीनों में से) एक पिण्ड आप स्वयं खाना, और (शेष) दो पिण्ड स्थविर श्रमणों को देना।' (इस पर वह निन्थ उन तीनों पिण्डों को ग्रहण कर ले। तत्पश्चात् वह स्थविरों की गवेषणा करे। गवेषणा करने पर जहाँ उन स्थविरों को देखे, वहीं उन्हें वे दोनों पिण्ड दे दे। गवेषणा करने पर भी वे कहीं दिखाई न दें तो शेष वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए, यावत् स्वयं न खाए, परिष्ठापन करे (परठ दे)। [3] एवं जाव दहि पिडेहि उवनिमंतेज्जा, नवरं एग पाउसो! अप्पणा भुजाहि, नव थेराणं दलयाहि. सेसं तं चेव जाव परिहावेतवे सिया। [4-3] इसी प्रकार गृहस्थ के घर में प्रविष्ट निम्रन्थ को यावत् दस पिण्डों को ग्रहण करने 1. "संथरणम्मि असुद्ध दोण्ह वि गेण्हदितयाणऽहियं / आउरदिदतेणं तं चेव हियं असंथरणे॥" --भगवती. अ. वत्ति, पत्रांक 373 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org