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________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 7] [719 मद्रुक द्वारा अन्यतीथिकों को दिये गए युक्तिसंगत उत्तर की भगवान् द्वारा प्रशंसा मद्रुक द्वारा धर्मश्रवण करके प्रतिगमन 33. 'मह या !' इ समणे भगवं महाबोरे मह यं समणोवासयं एवं क्यासि--सुट्ठ णं मह,या ! तुम ते अन्नउत्थिए एवं वयासि, साहु णं मह या! तुमं ते अन्नउत्थिए एवं वयासि, जे णं मह या ! अटुं वा हेउं वा पसिणं वा वागरणं वा अण्णातं अदिट्ठ अस्सुतं अमयं प्रविण्णायं बहुजणमाझे आघवेति पण्णवेति जाव उवदंसेति से णं अरहताणं आसायणाए वट्टति, अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स प्रासायणाए बट्टति, केवलीणं आसायणाए बट्टति, केवलिपन्नत्तस्स धम्मस्स प्रासायणाए वट्टति / तं सुट्ठ णं तुमं मद्दया! ते अन्नउस्थिए एवं क्यासि, साहु णं तुम मद्द या ! जाव एवं वयासि / [33] हे मद्र क ! इस प्रकार सम्बोधित कर श्रमण भगवान महावीर ने मद्रक श्रमणोपासक से इस प्रकार कहा-हे मद्रक ! तुमने उन अन्यतीथिकों को जो उत्तर दिया, वह समीचीन है, मद्रक ! तुमने उन अन्यतीथिकों को यथार्थ उत्तर दिया है / हे मद्रक ! जो व्यक्ति बिना जाने, बिना देखे तथा बिना सुने किसी (अमुक) अज्ञात अदृष्ट, अश्रुत, असम्मत एवं अविज्ञात अर्थ, हेतु, प्रश्न या विवेचन (व्याकरण =व्याख्या) का उत्तर बहुत-से मनुष्यों के बीच में कहता है, बतलाता है यावत् उपदेश देता है, वह अरहन्त भगवन्तों की प्राशातना में प्रवृत्त होता है, वह अहत्प्रज्ञप्त धर्म की प्राशातना करता है, वह केवलियों की प्राशातना करता है, वह केवलि-प्ररूपित धर्म की भी आशातना करता है / हे मद्रक ! तुमने उन अन्यतीथिकों को इस प्रकार का उत्तर देकर बहुत अच्छा कार्य किया है। मद्रक ! तुमने बहुत उत्तम कार्य किया, यावत् इस प्रकार का उत्तर दिया (और अन्यतीथिकों को निरुत्तर कर दिया।) 34. तए णं मह.ए समणोवासए समणेणं भगवया महावीरेण एवं वुत्ते समाणे हट्ट समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 पच्चासन्ने जाव पज्जुवासति / [34] श्रमण भगवान महावीर के इस कथन को सुनकर हृष्टतुष्ट यावत् मद्रक श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया और न प्रतिनिकट और न अतिदूर बैठकर यावत् पर्युपासना करने लगा / 35. तए णं समणे भगवं महावीरे मद्द यस्स समणोवासगस्स तोसे य जाव परिसा पडिगया। [35] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर ने मद्र क श्रमणोपासक तथा उस परिषद् को धर्मकथा कही / यावत् परिषद् लोट गई / 36. तए णं मद्द ए समणोवासए समणस्स भगवतो जाव निसम्म हद्वत्तुट्ट० पसिणाई पुच्छति, 50 पु० 2 अट्ठाई परियाइयति, अ० 50 2 उढाए उट्ठति, उ० 2 समणं भगवं महावीरं वंदति नमसइ जाव पडिगए। [36] तत्पश्चात मद्रक श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान महावीर से यावत् धर्मोपदेश सुना, और उसे अवधारण करके अतीव हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ। फिर उसने भगवान से प्रश्न पूछे, अर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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