________________ छट्ठो उद्देसओ : छठा उद्देशक कृष्णलेश्यो भवसिद्धिक नारकों की उपपात-सम्बन्धी प्ररूपरणा 1. कण्हलेस्सभवसिद्धीयखुड्डाकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कसो उववज्जति ? एवं जहेव ओहिनो कण्हलेस्सउद्देसनो तहेव निरवसेसं / चउसु वि जुम्मेसु भाणियव्यो जाब [1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक क्षुद्रकृतयुग्मप्रमाण नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार औधिक कृष्णलेश्या के उद्देशक में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ सब कथन करना चाहिए। चारों युग्मों में इसका कथन करना चाहिए / 2. अहेसत्तमपुढविकण्हलेस्सखुड्डाकलियोगनेरइया णं भंते ! कसो उधवजंति ? . तहेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // इक्कतोसइमे सए : छट्ठो उद्देसनो समत्तो // 31.6 // 2 प्र.] भगवन् ! अधःसप्तमपृथ्वी के कृष्णलेश्यी क्षुद्र कल्योजराशिप्रमाण नैरयिक कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [2 उ.] पूर्ववत् कथन करना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // इकतीसवाँ शतक : छठा उद्देशक समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org