________________ 18] [ भगवतीसूत्र भेदन बद्ध कर्म के तीव्र रस को अपवर्तनाकरण द्वारा मन्द करना अथवा उद्वर्तनाकरण द्वारा मन्द रस को तीव्र करना / दग्ध-कर्मरूपी काष्ठ को ध्यानाग्नि से जलाकर अकर्म रूप कर देना। मत--पूर्वबद्ध आयुष्यकर्म के पुद्गलों का नाश होना। निर्जी-फल देने के पश्चात् कर्मों का आत्मा से पृथक् होना-क्षीण होना / एकार्थ-जिनका विषय एक हो, या जिनका अर्थ एक हो। घोष–तीन प्रकार के हैं उदात्त (जो उच्चस्वर से वोला जाए), अनुदात्त (जो नीचे स्वर से बोला जाए) और स्वरित (जो मध्यमस्वर से वोला जाए)। यह तो स्पष्ट है कि इन नौ पदों के घोष और व्यञ्जन पृथक्-पृथक हैं। चारों एकार्थक-चलन, उदीरणा, वेदना और प्रहाण, ये चारों क्रियाएँ तुल्यकाल (एक अन्तमुहर्तस्थितिक) की अपेक्षा से, गत्यर्थक होने से तथा एक ही कार्य (केवलज्ञान प्रकटीकरण रूप) की साधक होने से एकार्थक हैं। पाँचों भिन्नार्थक–छेदन, भेदन, दहन, मरण, निर्जरण, ये पाँचों पद वस्तु विनाश की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न अर्थ वाले हैं। तात्पर्य यह है कि छेदन स्थितिबन्ध को अपेक्षा से, भेदन अनुभाग (रस) बन्ध की अपेक्षा से, दहन प्रदेशबन्ध को अपेक्षा से, मरण आयुष्यकर्म निर्जरण समस्त कर्मों की अपेक्षा से कहा गया है / अतएव ये सब पद भिन्न-भिन्न अर्थ के वाचक हैं।' चौबीस दंडकगत स्थिति आदि का विचार-- (नैरयिक चर्चा) 6. (1.1) नेरइयाणं भंते ! केवइकालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं दस बाससहस्साई', उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता 6--[1. 1 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों की स्थिति (आयुष्य) कितने काल की कही है ? [1. 1. उ.] हे गौतम ! जघन्य (कम से कम) दस हजार वर्ष की, और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) तैतीस सागरोपम की कही है। (1.2) नेरइया गं भंते ! केवइकालस्स प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ? जहा ऊसासपदे। [1. 2. प्र.] भगवन् ! नारक कितने काल (समय) में श्वास लेते हैं और कितने समय में श्वास छोड़ते हैं--कितने काल में उच्छ्वास लेते हैं और निःश्वास छोड़ते हैं ? [1. 2. उ.] (प्रज्ञापना-सूत्रोक्त) उच्छ्वास पद (सातवें पद) के अनुसार समझना चाहिए। 1. भगवतीसत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 15 से 19 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org