________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१] [ 17 [1 उ.] हाँ गौतम ! जो चल रहा हो, उसे चला, यावत् निर्जरित हो रहा है, उसे निर्जीर्ण हुया, (इस प्रकार कहा जा सकता है।) (2) एए णं भंते ! नव पदा कि एगट्टा नाणाघोसा नाणावंजणा उदाहु नाणटा नाणाघोसा नाणावंजणा? गोयमा! चलमाणे चलिते 1, उदोरिजमाणे उदीरिते 2, वेइज्जमाणे वेइए 3, पहिज्जमाणे पहोणे 4, एए णं चत्तारि पदा एगट्ठा नाणाघोसा नाणावंजणा उत्पन्नपक्खस्स / छिज्जमाणे छिन्ने 1, भिज्जमाणे भिन्ने 2, डउझमाणे डड्डे 3, मिज्जमाणे मंडे 4, निजरिज्जमाणे निज्जिण्णे 5, एए णं पंच पदा नाणट्ठा नाणाधोसा नाणावंजणा विगतपक्खस्त / !2 प्र.] भगवन् ! क्या ये नौ पद, नानाघोष और नाना व्यजनों वाले एकार्थक हैं ? अथवा नाना घोष वाले और नाना व्यञ्जनों वाले भिन्नार्थक पद हैं ? 2 उ.] हे गौतम ! 1. जो चल रहा है, वह चला; 2. जो उदीरा जा रहा है, वह उदीर्ण हुआ; 3. जो वेदा जा रहा है वह वेदा गया; 4. और जो गिर (नष्ट हो) रहा है, वह गिरा (नष्ट हुग्रा), ये चारों पद उत्पन्न पक्ष की अपेक्षा से एकार्थक, नाना-घोष वाले और नाना-व्यन्जनों वाले हैं / तथा 1. जो छेदा जा रहा है, वह छिन्न हुआ, 2. जो भेदा जा रहा है, वह भिन्न हुआ, 3. जो दग्ध हो रहा है, वह दग्ध हुआ; 4. जो मर रहा है, वह मरा; और 5. जो निर्जीर्ण किया जा रहा है, वह निर्जीर्ण हुआ, ये पांच पद विगतपक्ष की अपेक्षा से नाना अर्थ वाले, नाना-घोष वाले और नाना- व्यञ्जनों वाले हैं / विवेचन--चलन प्रादि से सम्बन्धित नौ प्रश्नोत्तर---प्रस्तुत पंचम सूत्र में दो विभाग हैंप्रथम विभाग में कर्मबन्ध के नाश होने की क्रमशः प्रक्रिया से सम्बन्धित प्रश्न और उनके उत्तर हैं; दूसरे विभाग में इन्हीं 6 कर्मबन्धनाशप्रक्रिया के एकार्थक या नानार्थक होने के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर है।' विशेषावश्यकभाष्य में श्रावस्ती में प्रादुर्भूत 'बहरत' नामक निह्नवदर्शन के प्रवर्तक जमालि का वर्णन है / उसका मन्तव्य था कि जो कार्य किया जा रहा है, उसे संपूर्ण न होने तक किया गया', ऐसा कहना मिथ्या है। इस प्रकार के प्रचलित मत को लेकर श्रोगौतमस्वामी द्वारा ये प्रश्न समाधानार्थ प्रस्तुत किए गए। __जो क्रिया प्रथम समय में हुई है, उसने भी कुछ कार्य किया है, निश्चयनय की अपेक्षा से ऐसा मानना उचित है। चलन–कर्मदल का उदयावलिका के लिए चलना / उदीरणा कर्मों की स्थिति परिपक्व होने पर उदय में आने से पहले ही अध्यवसाय विशेष से उन कर्मों को उदयावलिका में खींच लाना / वेदना-उदयावलिका में आए हुए कर्मों के फल का अनुभव करना / प्रहाण प्रात्मप्रदेशों के साथ एकमेक हुए कर्मों का हटना-गिरना / छेदन---कर्म की दीर्घकालिक स्थिति को अपवर्तना द्वारा अल्पकालिक स्थिति में करना / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 14,15 का सारांश 2. विशेषावश्यकभाष्य गा. 2306, 2307 (विशेष चर्चा जमालि प्रसंग में देखें) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org