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________________ 70] [ व्याख्याप्रप्तिसूत्र उसके वक्र, ऋजु आदि रूपान्तर होते हैं। निष्कर्ष यह है--किसी भी पदार्थ को सत्ता किसी भी प्रकार से हो, वही सत्ता दूसरे प्रकार से पूर्वापेक्षा भिन्न प्रकार से हो जाती है। जैसे-मिट्टी रूप पदार्थ की सत्ता सर्वप्रथम एक पिण्डरूप में होती है, वही सत्ता घटरूप में हो जाती है। (2) द्वितीय प्राशय-जो अस्तित्व अर्थात्-सत् (विद्यमान-सत्तावाला) पदार्थ है, वह सत्रूप (अस्तित्वरूप) में परिणत होता है / तात्पर्य यह है कि सत् पदार्थ सदैव सद्रूप ही रहता है विनष्ट नहीं होता-कदापि असत् (शून्यरूप) में परिणत नहीं होता / जिसे विनाश कहा जाता है, वह मात्र रूपान्तर-पर्याय परिवर्तन है, 'असत् होना, या समूल नाश होना नहीं / जैसे-एक दोपक प्रकाशमान है, किन्तु तेल जल जाने या हवा का झोंका लगने से वह बुझ जाता है / आप कहेंगे कि दीपक का नाश हो गया, किन्तु वास्तव में वह प्रकाश अपने मूलरूप में नष्ट नहीं हुआ, केवल पर्याय-परिवर्तन हुआ है / प्रकाशरूप पुद्गल अब अपनी पर्याय पलट कर अन्धकार के रूप में परिणत हो गया है। प्रकाशावस्था और अन्धकारावस्था, इन दोनों अवस्थाओं में दीपकरूप द्रव्य वही है। इसी का नाम है सत् का सद् रूप में ही रहना; क्योंकि सत् धर्मोरूप है और सत्त्व धर्मरूप है, इन दोनों में अभेद है, तभी सत् पदार्थ सत् रूप में परिणत होता है। वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्मों की विद्यमानता केवल अस्तित्व सम्बन्धी प्रश्न करने से सभी वस्तुएँ एक रूप हो जाती, इसलिए नास्तित्व सम्बन्धी प्रश्न भी किया गया है / जहाँ अस्तित्व है, वहाँ नास्तित्व अवश्य है। इस सत्य को प्रकट करने के लिए नास्तित्व सम्बन्धी प्रश्न भी आवश्यक था। कोई कह सकता है कि एक ही पदार्थ में अस्तित्व और नास्तित्व, ये दो विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म कैसे रह सकते हैं ? परन्तु जैनदर्शन का सिद्धान्त है कि पदार्थ में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्म विभिन्न अपेक्षा से विद्यमान हैं, बल्कि अपेक्षाभेद के कारण इन दोनों में विरोध नहीं रहकर, साहचर्य सम्बन्ध हो जाता है / तात्पर्य यह है कि एक ही अपेक्षा से अस्तित्व और नास्तित्व-दोनों एक पदार्थ में माने जाएँ तो विरोध आता है, किन्तु पृथक-पृथक अपेक्षाओं से दोनों को एक पदार्थ में मानना विरुद्ध नहीं है / जैसे—वस्त्र में अपने स्वरूप की अपेक्षा अस्तित्व है किन्तु पररूप को अपेक्षा से नास्तित्व है / ऐसा न मानने पर प्रतिनियत विभिन्न पदार्थों की व्यवस्था एवं स्वानुभवसिद्ध पृथक्-पृथक् व्यवहार नहीं हो सकेगा। अतः वस्तु केवल सत्तामय नहीं किन्तु सत्ता और असत्तामय है। यही मानना उचित है। नास्तित्व की नास्तित्व-रूप में परिणति : व्याख्या-इस सूत्र की एक व्याख्या यह है कि जिस वस्तु में जिसकी जिस रूप में नास्ति है, उसकी उसी रूप में नास्ति रहती है / जैसे-अंगुली का अंगूठा आदि के रूप में न होना, अंगुलो का (अगुली की अपेक्षा से) अंगूठा आदि रूप में नास्तित्व है / वह अंगुष्ठादिरूप में नास्तित्व अंगुली के लिए अंगूठा आदि के नास्तित्व में परिणत होता है / सीधे शब्दों में यों कहा जा सकता है जो अंगुली अंगुष्ठादिरूप नहीं है, वह अंगुष्ठादि नहीं होती। इसका यह अर्थ नहीं है कि अंगूठे की अंगूठे के रूप में नास्ति है / जो है, वहीं है, अन्यरूप नहीं है / नास्तित्व नास्तित्वरूप में परिणत होता है, इसके उदाहरण भी वे ही समझने चाहिए क्योंकि स्वरूप से अस्तित्व ही परस्वरूप से नास्तित्व कहलाता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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