SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम शतक : उद्देशक-३ ] इस सूत्र की दूसरी व्याख्या इस प्रकार भी है-नास्तित्व का अर्थ- अत्यन्त अभावरूप है / अत्यन्ताभावरूप नास्तित्व के उदाहरण-गधे के सींग या आकाशपुष्प आदि हैं। अत: जो अत्यन्ताभावरूप नास्तित्व है, वह (गर्दभ शृगादि) अत्यन्ताभाव रूप नास्तित्व में ही रहता है, क्योंकि जो वस्तु सर्वथा असत् होती है, उसका कदापि अस्तित्व (सत्रूपता) हो नहीं सकता। कहा भी है'असत् सद्रूप नहीं होता और सत् असत्रूप नहीं होता।' तीसरी व्याख्या इस प्रकार भी है-धर्मी के साथ धर्म का अभेद होता है, इसलिए अस्तित्व यानी सत् (जो सत् होता है, वह) सत्त्वरूप धर्म में होता है / जैसे- पट पटत्व में ही है / तथा नास्तित्व यानि असत् (जो असत् है, वह) असत्त्वरूप धर्म में ही होता है / जैसे अपट अपटत्व में ही है / पदार्थों के परिणमन के प्रकार -अस्तित्व का अस्तित्वरूप में परिणमन दो प्रकार से होता है-प्रयोग से (जीव के व्यापार से) और स्वभाव से (विश्रसा)। प्रयोग से यथा-कुम्भार की क्रिया से मिट्टी के पिंड का घटरूप में परिणमन / स्वभाव से यथा-सफेद बादल काले बादलों के रूप में किसी को क्रिया के बिना, स्वभावतः परिणत होते हैं। नास्तित्व का नास्तित्वरूप में परिणमन भी दो प्रकार से होता है--प्रयोग से और स्वभाव से / प्रयोग से यथा-घटादि को अपेक्षा से मिट्टी का पिण्ड नास्तित्व रूप है / स्वभाव से यथा—पृच्छाकाल में सफेद बालों में कृष्णत्व का नास्तित्व / गमनीयरूप प्रश्न का आशय-गमनीय का अर्थ है—प्ररूपणा करने योग्य / गमनीयरूप प्रश्न का प्राशय यह है कि पहले जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है, वह केवल समझने के लिए है या प्ररूपणा करने योग्य भी है ? _ 'एस्थं' और 'इह प्रश्नसम्बन्धी सूत्र का तात्पर्य - 'एत्थं' और 'इह' सम्बन्धी प्रश्नात्मकसूत्र की तीन व्याख्याएँ वृत्तिकार ने की हैं—(१) 'एत्थं' का अर्थ यहाँ अर्थात्-स्व शिष्य और 'इह' का अर्थ-गृहस्थ या परपाषण्डी आदि / इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि वस्तु की प्ररूपणा आप अपने और पराये का भेद न रखकर स्व-परजनों के लिए समभाव से करते हैं ?, (2) अथवा 'एत्य' का अर्थ है-स्वात्मा और 'इ' का अर्थ है-परात्मा। इसका आशय यह है कि आपको अपने (स्वात्मा) में जैसे सुखप्रियता आदि धर्म गमनीय है, वैसे ही क्या परात्मा में भी गमनीय ---अभीष्ट हैं ?, (3) अथवा 'एत्थं' और 'इहं' दोनों समानार्थक शब्द हैं। दोनों का अर्थ है-~-प्रत्यक्षगम्य, प्रत्यक्षाधिकरणता / इसका आशय यह है-जैसे आपको अपनी सेवा में रहे हुए ये श्रमणादि प्रत्यक्षगम्य हैं, वैसे ही क्या गृहस्थ आदि भी प्रत्यक्षगम्य हैं ? इस प्रश्न का उत्तर भगवान् ने दिया, उसका प्राशय यह है कि चाहे स्वशिष्य हो या गहस्थादि, प्ररूपणा सबके लिए समान होती है होनी चाहिए।' कांक्षामोहनीय कर्मबन्ध के कारणों को परम्परा 8. जीवा णं भंते ! कंखामोहणिज्ज कम्मं बंधति ? हंता, बंधति / 1. (क) भगवतीसूत्र अभय. वृत्ति, पत्रांक 55-56 (ख) भगवतीसूत्र (टीका-अनुवाद पं. वेचरदासजी) खण्ड 1. पृ. 118 से 120 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy