________________ 240] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के प्रति वैरानुबन्ध, चम्पानिवास, अनाराधक होने से असुंरकुमार देव के रूप में उपपात, तदनन्तर महाविदेहक्षेत्र में जन्म एवं मोक्षप्राप्ति तक का वर्णन है। * सातवें उद्देशक में भाषा, मन, काय आदि के प्रकार, स्वरूप तथा इनके अधिकारी तथा प्रात्मा से भिन्नता-अभिन्नता प्रादि का वर्णन है। अन्त में, मरण के भेद-प्रभेद, स्वरूप आदि की प्ररूपणा है। * आठवें उद्देशक में प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक पाठ मूल कर्मप्रकृतियों, उनके स्वरूप, बन्ध, स्थिति आदि का वर्णन है / नौवें उद्देशक में विविध दृष्टान्तों द्वारा भावितात्मा अनगार की लब्धिसामर्थ्य एवं वैक्रियशक्ति का प्रतिपादन किया गया है। उपसंहार में, इस प्रकार वैक्रियलब्धि का प्रयोग करने वाले अनगार को भायी (प्रमादी) कह कर आलोचना किये बिना कालधर्म पाने पर अनाराधक बताया गया है। * दश उद्देशक में प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक छद्मस्थों के छह समुद्घातों का स्वरूप तथा प्रयोजन बताया गया है। * कुल मिलाकर विविध रूपों को प्राप्त आत्माओं के सम्बन्ध में विविध पहलुओं से चर्चा विचारणा की गई है। 00 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. 615 से 658 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org