________________ 588] [भ्याख्याप्राप्तिसूत्र अविचिन्तन पथ में और (4) अविकृतिपथे-अविकृतिरूप पथ में यानी वीतराग होने से जिस पथ में क्रिया अविकृत हो।' 'पुरओ' आदि शब्दों का भावार्थ-पुरओ-आगे के / निज्झायमाणस्स-निहारते या चिन्तन करते हुए / मगओ---पीछे के / अवयक्खमाणस्स-अवकांक्षा--अपेक्षा करते हुए, या प्रेक्षण करते हुए / अवलोएमाणस्स-अवलोकन करते हुए। संपराइया--साम्परायिकी-कषाय सम्बन्धी / उस्मुत्तमेव रीयति-उत्सूत्र-सूत्रविरुद्ध ही चलता है। महासुतं यथासूत्र--सूत्रानुसार / ईरियावहिया किरिया-ऐपिथिकी क्रिया, जो केवल योगप्रत्यया कर्मबन्धक्रिया हो / रे योनियों के भेद-प्रभेद प्रकार एवं स्वरूप 4. कतिविधा णं भंते ! जोणी पण्णता? गोयमा ! तिविहा जोणी पणत्ता, तं जहा- सोया उसिणा सीतोसिणा / एवं जोगीपयं निरवसेसं भाणियध्वं / [4 प्र.] भगवन् ! योनि कितने प्रकार की कही गई है ? [3 उ.] गौतम ! योनि तीन प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार--शीत, उष्ण, शीतोष्ण / यहाँ (प्रज्ञापनासूत्र का नौवाँ) योनिपद सम्पूर्ण कहना चाहिए। विवेचन-योनिसम्बन्धी निरूपण-प्रस्तुत चौथे सूत्र में योनि के प्रकार, भेदोपभेद, संख्या, वर्णादि का विवरण जानने के लिए प्रज्ञापनासूत्रगत योनिपद का अतिदेश किया गया है / योनि का निर्वचनार्थ--योनिशब्द 'यु मिश्रणे' धातु से निष्पन्न हुमा है। अतः इसका व्युत्पत्तिजन्य अर्थ हुआ--जिसमें तैजस-कार्मणशरीर वाले जीव औदारिक आदि शरीर के योग्य पुद्गलस्कन्ध-समुदाय के साथ मिश्रित होते हैं, उसे योनि कहते हैं / योनि के सामान्यतया तीन प्रकार-प्रस्तुत मूल पाठ में योनि तीन प्रकार की बताई गई है-शीत, उष्ण, शीतोष्ण। शीतस्पर्श के परिणाम वाली शीतयोनि, उष्णस्पर्श के परिणाम वाली उष्णयोनि और उभय-स्पर्श के परिणाम वाली शीतोष्णयोनि कहलाती है। प्रज्ञापना के योनिपद के अनुसार नारकों की शीत और उष्ण दो प्रकार की योनियाँ हैं, देवों और गर्भज जीवों की शीतोष्ण योनियाँ हैं / तेजस्काय की उष्णयोनि होती है तथा शेष जीवों के तीनों प्रकार की योनियाँ होती हैं। 1. वही, अ. वृत्ति, पत्र 496 2. वहीं, पत्र 496 3. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 2, पृ. 488.489 (ख) प्रज्ञापनासूत्र (म. जे. विद्यालय) 9 वा योनिपद, सू. 738-73, पृ. 190-92 4. 'युवन्ति-तजस-कार्मणशरीरवन्त औदारिकादिशरीरयोग्यस्कन्धसमुदायेन मिश्रीभवन्ति झीवा यस्यां सा योनिः / ' --भगवती. प. पू., पत्र 496 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org