________________ वशम शतक : उद्देशक-२] [587 3. [1] संवृहस्स णं भंते ! प्रणगारस्स अवोयो पंथे ठिच्चा पुरतो रुवाई निज्शायमाणस्स जाव तस्स णं भंते ! कि इरियावहिया किरिया कज्जइ० ? पुच्छा / गोयमा ! संबड० जाव तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जा / [3-1 प्र.] भगवन् ! अवीचिपथ (अकषायभाव) में स्थित संवृत अनगार को सामने के रूपों को निहारते हुए यावत् नीचे के रूपों का अवलोकन करते हुए क्या ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ? ; इत्यादि प्रश्न / [3-1 उ.] गौतम अकषाय भाव में स्थित संवृत अनगार को उपर्युक्त रूपों का अवलोकन करते हुए ऐपिथिकी क्रिया लगती है, (किन्तु) साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती। [2] से केणठेणं भंते ! एवं बच्चा ? जहा सत्तमसए सत्तमुद्देसए (स. 7 उ. 7 सु. 1 [2]) जाव से गं अहासुत्तमेव रीयति, से तेणठेणं जाव नो संपराइया किरिया कज्जा / [3-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? [3-2 उ.] गौतम ! सप्तम शतक के सप्तम उद्देशक में वर्णित (जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न हो गए हों)--ऐसा जो संवृत अनगार यावत् सूत्रानुसार आचरण करता है; (उसको ऐपिथिकी क्रिया लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं।) इसी कारण मैं कहता हूँ, यावत् साम्परायिक क्रिया नहीं लगती। ऐपिथिको और साम्परायिको क्रिया के अधिकारी-सप्तम शतक में प्रतिपादित जैनसिद्धान्त का अतिदेश करके यहां बताया गया है कि जो आगे-पीछे के, अगल-बगल के एवं ऊपर-नीचे के रूपों का अवलोकन करते हुए चलता है, किन्तु जिसका कषायभाव व्युच्छिन्न नहीं हुअा है, ऐसे सूत्र-विरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले संवत अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगती है, किन्तु जिसका कषायभाव व्युच्छिन्न हो गया है यावत् जो सूत्रानुसार प्रवृत्ति करता है, उस संवृत अनगार को ऐर्यापथिको क्रिया लगती है। -2 वीयोपंथे : चार रूप : चार अर्थ-(१) वोचि (मतः)पये--वीचि का यहाँ अर्थ है--सम्प्रयोग, ग्रतः भावार्थ हुआ-कषाओं और जीव का सम्बन्ध / वीचिमान् का अर्थ कषायवान् के और पथे का अर्थ 'मार्ग में' है। (2) विचिपथे--विचिर् धातु पृथभाव अर्थ में है / अतः भावार्थ हुअा जो यथाख्यातसंयम से पृथक होकर कषायोदय के मार्ग में है। (3) विचितिपथे-जो रागादि विकल्पों के विचिन्तन के पथ में है, और (4) विकृतिपथे-~जिस स्थिति में सरागता होने से विरूपा कृति-क्रिया है, उस विकृति के मार्ग में। अवीयोपथे- चाररूप : चार अर्थ-(१) अवीचिपथे-अकषाय सम्बन्ध वाले मार्ग में, (2) अविचिपथे- यथाख्यातसंयम से अपृथक मार्ग में, (2) अविचितिपथे-रागादि विकल्पों के 1.2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 495 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org