________________ वशम शतक : उद्देशक-२] [589 प्रकारान्तर से योनि के तीन भेद-इस प्रकार हैं-सचित्त (जीव-प्रदेशों से सम्बन्धित) अचित्त (सर्वथा जोवरहित) और मिश्र / नारकों और देवों की योनियाँ अचित्त होती हैं। गर्भज जीवों की सचित्ताचित्त (अंशतः जीवप्रदेश-सहित और अंशतः जीवप्रदेश-रहित) योनि होती है और शेष जीवों की तीनों प्रकार की योनि होती है। अन्य प्रकार से योनि के तीन भेद-ये हैं--संवृत (जो उत्पत्तिस्थान ढंका हुआ-गुप्त हो, वह), विवृत (जो उत्पत्तिस्थान खुला हुआ हो, बह), एवं संवृत-विवृत (जो कुछ ढंका हुआ और कुछ खुला हुआ हो, वह) योनि / नारकों, देवों और एकेन्द्रिय जीवों के संवतयोनि, गर्भज जीवों के संवतविवृतयोनि और शेष जीवों के विवृतयोनि होती है। उत्कृष्टता-निकृष्टता की दृष्टि से योनि के तीन प्रकार ----कूर्मोन्नता (कछुए की पीठ की तरह उन्नत), शंखावर्ता-(शंख के समान पावर्त वाली) और वंशीपत्रा-(बांस के दो पत्तों के समान सम्पुट मिले हुए हों)। चक्रवर्ती की पटरानी श्रीदेवी की शंखावर्ती योनि / तीर्थकर, बलदेव, वासुदेव आदि उत्तम पुरुषों की माता के कर्मोन्नता योनि तथा शेष समस्त संसारी जीवों की माता के वंशीपत्रा योनि होती है।' . चौरासी लाख जीवयोनियाँ-वास्तव में योनि कहते हैं—जीवों के उत्पत्तिस्थान को / वह योनि प्रत्येक जीवनिकाय के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के भेद से अनेक प्रकार की है / यथा--पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय की प्रत्येक की 7-7 लाख योनियाँ हैं, प्रत्येक बनस्पतिकाय की 10 लाख, साधारण वनस्पतिकाय की 14 लाख, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की प्रत्येक की 4-4 लाख और मनुष्य की 14 लाख योनियों हैं। ये सब मिला कर 84 लाख योनियाँ होती है / यद्यपि व्यक्तिभेद की अपेक्षा से अनन्त जीव होने से जीवयोनियों की संख्या अनन्त होती है, किन्तु यहाँ समान वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाली योनियों को जातिरूप से सामान्यतया एक योनि मानी गई है / इस दृष्टि से योनियों की कुल 84 लाख जातियाँ (किस्में) हैं।' विविध वेदना : प्रकार एवं स्वरूप 5. कतिविधा णं भंते ! वेदणा पण्णता ? गोयमा ! तिविहा वेदणा पण्णत्ता, तं जहा–सीता उसिणा सीतोसिणा। एवं वेदणापदं माणितव्वं जाव.. नेरइया णं भंते ! किं दुक्खं घेवणं वेदेति, सुहं वेदणं वेति, अदुक्खमसुहं वेदणं वेति ? गोयमा ! दुक्खं पि घेवणं वेदेति, सुहं पि वेदणं वेदेति, अनुक्खमसुहं पि वेदणं वेति / [5 प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? 1. (क) प्रज्ञापना. 9 वा योनिपद (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 496-497 2. भगवती. विवेचन (पं. घेदरचन्दजी) भा. 4, पृ. 1795 "समवल्याई समेया पहषो वि जोणिभेयलक्खा उ / सामण्णा घेति ह एक्कजोगीए गहणेगं // " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org