________________ पच्चीसवां शतक : प्राथमिक [275 रहस्य खोलते हुए इस उद्देशक में शास्त्रकार ने जीव की शक्ति को अनन्त और प्रबल बताते हुए कहा है कि जीव द्रव्य अजीव द्रव्यों के परिभोग में नहीं आते हैं, अजीव द्रव्य ही जीव द्रव्य के परिभोग में आते हैं। फिर यह प्रश्न भी उठाया गया है कि असंख्यातप्रदेशात्मक लोकाकाश में जीव और अजीव रूप अनन्त द्रव्य कैसे समा सकते हैं ? साथ ही यह भी बताया गया है कि जीव जिस आकाशप्रदेश में रहा हुआ है, उसी क्षेत्र के अन्दर रहे हुए पुद्गल स्थितद्रव्य हैं, उससे बाहर के क्षेत्र में रहे हुए पुद्गल अस्थितद्रव्य हैं। उन्हें जीव वहाँ से खींच कर ग्रहण करता है द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव से भी तथा वह (जीव) पांच शरीर, पांच इन्द्रिय, तीन योग और श्वासोच्छ्वास ; इन चौदह के रूप में यथायोग्य ग्रहण भी करता है। इन्हीं से फिर कर्मबन्ध और उनसे जन्म-मरण-परम्परा को बढ़ाता है। साधक को इनसे सावधान रहने का संकेत किया गया है। तीसरे उद्देशक में बताया गया है कि जिस प्रकार जीव के छह संस्थान होते हैं, उसी प्रकार अजीव द्रव्य के भी परिमण्डल आदि छह संस्थान होते हैं। उनका अल्पबहुत्व एवं संख्यापरिमाण भी यहाँ बताया है तथा रत्नप्रभादि पृध्वियों में कौन से संस्थान कितने हैं ? कौन-सा संस्थान कितने प्रदेश का तथा कितने प्रदेशों में अवगाढ़ है? वे कृतयुग्म हैं या व्योज, द्वापरयुग्म या कल्योजरूप हैं ? अन्त में लोकाकाश और अलोकाकाश की श्रेणियों की चर्चा की गई है। साथ ही जीवों और पुद्गलों की अनुश्रेणि गति और विश्रेणि गति का प्रतिपादन किया गया है। इसके पश्चात् इस उद्देशक में इस प्रकार के सूक्ष्म सैद्धान्तिक ज्ञान के प्रदाता गणिपिटक (द्वादशांग) का भी उल्लेख किया है, जिससे साधक सूक्ष्म सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त कर सके। अन्त में चारों गतियों के तथा सिद्ध गति के जीवों के एवं सइन्द्रिय, एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय एवं अनिन्द्रिय जीवों के तथा जीवों और पुद्गलों के अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार के सूक्ष्म सैद्धान्तिक ज्ञान का प्रयोजन यह है कि साधक आत्मा की व्यापकता, अनन्त शक्तिमत्ता एवं अवगाहन-क्षमता आदि को जान सके तथा प्रायु आदि कर्मों के बन्ध से बच सके। चतुर्थ उद्देशक में नरयिक से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में कृतयुग्म आदि की चर्चा करके फिर धर्मास्तिकाय आदि षद्रव्यों में भी उसी की चर्चा की है / तत्पश्चात द्रव्यार्थ से और प्रदेशार्थ से सभी जीवों के कृतयुग्मादि की, कृतयुग्मप्रदेशावगाढ़ आदि की तथा कृतयुग्मादि समय की स्थिति की तथा आत्मप्रदेशों और शरीरप्रदेशों की अपेक्षा से कृतयुग्मादि की प्ररूपणा की है। फिर मतिज्ञान प्रादि पांच ज्ञानों के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म आदि की प्ररूपणा की है। इसके पश्चात् जीवों की सकम्पता-निष्कम्पता तथा देशकम्पकता, सर्वकम्पकता की चर्चा की गई है तथा परमाणु पुद्गल, एकप्रदेशावमाढ़, एकसमयस्थितिक तथा एकगुणकाले आदि से लेकर संख्यात, असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है, जो मुमुक्षु आत्माओं के लिए श्रद्धापूर्वक ज्ञेय है। एक परमाणु से अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध तक के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org