________________ 276] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कृतयुग्मादि की पूर्ववत चर्चा की गई है। परमाण से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक सार्द्ध-अनर्द्ध की भी सूक्ष्म चर्चा है / जीवों के समान परमाणु प्रादि की सकम्पता-निष्कपता तथा कियत्काल-स्थायिता, कियत्काल का अन्तर एवं उनकी सकम्पता, निष्कम्पता व अल्पबहुत्व का निरूपण भी किया गया है। अन्त में धर्मास्तिकाय से लेकर जीवास्तिकाय तक के मध्यप्रदेशों की भी चर्चा है। पंचम उद्देशक में जीव और अजीव के पर्यवों की प्ररूपणा से प्रारम्भ करके प्रावलिका से लेकर पुद्गल-परिवर्तन तक के कालसम्बन्धी परिमाण की चर्चा की है। इस चर्चा का उद्देश्य यही संभावित है कि मुमुक्ष साधक अपने अतीत के अनन्तकालिक भवों के लक्ष्यहीन अज्ञानग्रस्त जीवन पर विचार करके भविष्यत्काल को सुधार सके, उज्ज्वल बना सके / इस उद्देशक के अन्त में द्विविध निगोद जीवों तथा औदयिक आदि पांच भावों का निरूपण भी किया गया है * छठे उद्देशक में मोक्षलक्ष्यी पंचविध निर्ग्रन्थ साधक के मार्ग में कौन-कौन से अवरोध या बाधक तत्त्व प्रा जाते हैं, जो उसकी मोक्ष की ओर की गति को मन्द कर देते हैं ? किन साधक तत्त्वों से वह गति बढ़ सकती है ? इस पर 36 द्वारों के माध्यम से विस्तृत रूप से निरूपण किया गया है। वस्तुतः पांचों प्रकार के निर्ग्रन्थों के आध्यात्मिक विकास के लिए यह तत्त्वज्ञान बहुत ही उपयोगी एवं अनिवार्य हैं। सातवें उद्देशक में सामायिक से लेकर यथाख्यात तक पांच प्रकार के संयतों का यथार्थ स्वरूप प्रथम प्रज्ञापनद्वार के माध्यम से बताकर उनके मोक्षमार्ग में बाधक-साधक तत्वों का भी पूर्वोक्त उद्देशक में कथित 36 द्वारों के माध्यम से सांगोपांग निरूपण किया गया है / इसके पश्चात् पंचविध निर्गन्थों तथा पंचविध संयतों को संयम में लगे हुए या लगने वाले दोषों की शुद्धि करके आत्मा को विशुद्ध, उज्ज्वल, स्वरूपस्थ, निजगुणलीन बनाने हेतु प्रतिसेवना, आलोचनादोष, आलोचना-योग्य, आलोचना (सुनकर प्रायश्चित्त) देने योग्य गुरु, समाचारी प्रायश्चित्त और बाह्य-प्राभ्यन्तर द्वादशविध तप, इन सात विषयों का विशद वर्णन किया गया है। * पाठ उद्देशक में जीवों के आगामी भव में उत्पन्न होने का प्रकार तथा उनकी शीघ्र गति एवं गतिविषय की चर्चा की गई है। जीव परभव की आयु किस प्रकार बांधते हैं ? जीवों की गति क्यों और कैसे होती है ? तथा जीव प्रात्मऋद्धि से, स्वकर्मों से, प्रात्मप्रयोग (व्यापार) से उत्पन्न होते हैं या परऋद्धि, परकर्म या पर-प्रयोग से ? इसकी कर्मसिद्धान्तानुसार प्ररूपणा की गई है। * नौवें उद्देशक में भी इसी प्रकार भवसिद्धिक (नरयिकों से वैमानिकों तक के) जीवों की उत्पत्ति, शीघ्रगति, गति-विषय, गति-कारण, आयुबन्ध, स्वऋद्धि-स्वकर्म-स्वप्रयोग से उत्पत्ति आदि की प्ररूपणा की गई है। दशवे उद्देशक में चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की उत्पत्ति आदि के विषय में पूर्ववत् प्ररूपणा की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org